सप्तत्रिशोध्याय: ७.२
( हे समर्थ अग्निदेव ) दिव्य अनुशासन, यज्ञीय प्रयोजनों एवं सूर्य के ताप की सार्थकता के लिए आपको
नियुक्त किया जाता है । सवितादेवता आपको मधुरता से युक्त करें । पृथ्वी का स्पर्श करके आप (सब प्राणियों
की) रक्षा करें । आप ज्वालारूप है विद्युत्रूप हैं तथा तपः शिति से युक्त हैं ॥११ ॥
१९०८. अनाधृष्टा पलानि आय दा: । पुत्रवती दक्षिणत5 इृद्धस्याधिपत्ये
प्रजं मे दा: । सुषदा पञ्चादेवस्य सवितुराधिपत्ये चक्रमे धातुराधिपत्ये
रायस्योषं मे दाः। विधृतिरुपरिष्टादब्हस्यतेराधिपत्यऽ ओजो मे दा विश्वाभ्यो मा
नाष्टाभ्यस्पाहि मनोरश्वासि ॥१२ ॥
हे पृथिवि ! शत्रुओं से अहिसित रहती हुई पूर्व दिशा में अग्नि की रक्षके बनकर हमें आयु प्रदान करें ।
होकर दक्षिण दिशा में इन्द्रदेव के स्वामित्व में रहकर उत्तम सन्तान प्रदान करें । हे पृथिवि ! आप सुखदायी .
एक अत: पश्चिम दिशा में सवितादेव के स्वामित्व में रहकर हमें दिव्य दृष्टि प्रदान करें । उत्तम रीति से श्रवण करने
वाली होकर उत्तर दिशा में ब्रह्मा के स्वामित्व में रहकर हमें उत्तम धन से युक्त ऐश्वर्य प्रदान करें । ऊर्ध्व दिशा
में नाना प्रकार के पदार्थो को धारण करने में समर्थ होकर बृहस्पतिदेव के स्वामित्व में रहकर हमें ओजस्वी बनाएँ ।
हे पृथिवि !दुष्ट प्रवृत्तियों वाले शत्रुओं से हमारी रक्षा करें ।आप मनस्वियों की अश्वा (वहन करने बाली) हैं ॥१२ ॥
१९०९. स्वाहा मरुद्धिः परि श्रीयस्व दिवः स स्पृशस्पाहि । मधु मधु मधु ॥१३ ॥
हमारी इस आहूति को मरुतदेव धारण करें । चुलोक को स्पर्श करनेवाली हवि, हमारी रक्षा करे । प्राण,
अपान और व्यान अथवा पृथ्वी, अन्तरिक्ष ओर द्युलोक मे मधुरता कौ स्थापना हो ॥६३ ॥
१९१०. गर्भो देवानां पिता मतीनां पतिः प्रजानाम् । सं देवो देवेन सवित्रा गत स सूर्येण
॥९ ॥
जो परमात्मा देवों के धारक, ज्ञानीजनो के पालक, प्रजा के रक्षक एवं दिव्यगुण सम्पन है । वे परमात्मा
सम्पूर्ण संसार के प्रेरक, सूर्यदेव के समान प्रकाशित होते है, (उन्हे हम स्तुतिपूर्वक नमन करते हैं) ॥१४ ॥
९९१९. समभ्निरम्निना गत सं दैवेन सवित्रा स सूर्येणारोचिष्ट । स्वाहा समग्निस्तपसा
गत सं दैव्येन सवित्रा स सूर्ेणारूरुचत ।॥१५ ॥
वह परमात्मा तेजस्वी अग्नि के समान सवितादेव से एकाकार होकर सूर्यरूप में प्रकाशित है । आहुति दी
गई हवि सहित अग्नि, सूर्य के तेज से मिलकर एवं दिव्यगुण युक्त सवितादेव ते एकाकार होकर सूर्यदेव के साथ
प्रकाशित होता है ॥१५ ॥
१९१२. धर्ता दिवो वि भाति तपसस्पृथिव्यां धर्ता देवो देवानाममर्त्यस्तपोजाः । वाचमस्मे
नि यच्छ देवायुवम् ॥१६ ॥
ज्ञानीजनों को धारण करनेवाला, रिच्यगुणयुक्त परमात्मा, साधारण मनुष्यो से भिन अपनी तपशक्ति से
सामर्थ्यवान् होकर द्युलोक और किरण समूहों को धारण करने वाले सूर्यरूप मे पृथ्वी पर सुशोभित होता है । वह
परमात्मा हमें दिव्यता धारण करानेवाली वाणी प्रदान करे ॥१६ ॥
१९१३.अपश्यं गोपामनिपद्यमानमा च परा च पथिभिश्चरन्तम्। स सधीचीः स
विषूचीर्वसान5 आ वरीवर्ति भुवनेष्यन्तः ॥१७ ॥
सबकी रक्षा करनेवाले, कभी भी नष्ट न होने वाले, अपने साथ रहनेवाली रश्मियों को धारण करने वाले,
समस्त लोकों के मध्य, सबसे ऊपर रहने वाले सूर्यदेव को हम देव मार्ग में आते एवं जाते हुए देखते है ॥१७ ॥