३५६ १ संक्षिप्त ब्रह्मपुराण [
धर्मकी महिमा एवं अधर्मकी गतिका निरूपण
तथा अन्नदानका माहात्म्य
मुनियोने कहा-- भगवन्! आप सम्पूर्ण धर्मोके | सहायक बताया गया है। बहुत-से शास्त्रोंका ज्ञाता
ज्ञाता तथा सब शास्त्रोंके ज्ञानमें निपुण हैं। कृपया | मनुष्य भी लोभ, मोह, घृणा अथवा भयसे मोहित
बताइये पिता, माता, पुत्र, गुरु, जातिवाले, सम्बन्धी | होकर दूसरेके लिये न करने योग्य कार्य भी कर
और मित्रवर्ग-इनमेंसे कौन मरनेवाले प्राणीका | डालता है। धर्म, अर्थ और काम--तीनों ही इस
विशेष सहायक होता है? लोग तो मृतकके शरीरको | जीवनके फल हैं। अधर्म-त्यागपूर्वक इन तीनोंकी
काठ और मिट्टीके ढेलेकी भाँति छोड़कर चल देते | प्राप्ति करनी चाहिये।*
हैं, फिर परलोकमें कौन उसके साथ जाता है? | मुनियोने कहा-- भगवन्! आपका यह धर्मयुक्त
व्यासजी बोले-- विप्रवरो ! प्राणी अकेला ही | वचन, जो परम कल्याणका साधन है, हमने
जन्य लेता, अकेला ही मरता, अकेला ही दुर्गम | सुना। अब हम यह जानना चाहते हैं कि यह
संकटको पार करता और अकेला ही दुर्गति | शरीर किन तत्त्वौका समूह है। मनुष्योंका मरा
पड़ता है । पिता, माता, भ्राता, पुत्र, गुरु, जातिवाले, हुआ शरीर तो स्थूलसे सुक्ष्म-अव्यक्तभावको
सम्बन्धी तथा मित्रवर्ग--इनर्मेसे कोई भी मरनेवालेका | प्राप्त हों जाता है, वह नेत्रौका विषय नहीं रह
साथ नहीं देता। घरके लोग मृत व्यक्तिके शरीरको | जाता; फिर धर्म कैसे उसके साथ जाता है?
काठ और मिट्टीके ढेलेकी भाँति त्याग देते ओर | व्यासजी बोले--पृथ्वी, वायु, आकाश, जल,
दो घड़ी रोकर उससे मुँह मोड़कर चले जाते हैं। | तेज, मन, बुद्धि और आत्मा-ये सदा साध रहकर
वे सब लोग तो त्याग देते हैं, किन्तु धर्म उसका ! धर्मपर दृष्टि रखते हैं। ये समस्त प्राणियोंके शुभाशुभ
त्याग नहीं करता। वह अकेला ही जीवके साथ | कर्मोंके निरन्तर साक्षी रहते हैं। इनके साथ धर्म
जाता है, अतः धर्म ही सच्चा सहायक है। इसलिये | जीवका अनुसरण करता है। जब शरीरसे प्राण
मनुष्योंको सदा धर्मका सेवन करना चाहिये । | निकल जाता है, तब त्वचा, हड्डी, मांस, वीर्य और
धर्मयुक्त प्राणी उत्तम स्वर्गगतिको प्राप्त होता है, | रक्त भी उस शरीरको छोड़ देते हैं। उस समय जीव
इसी प्रकार अधर्मयुक्त भानव नरके पड़ता है; | धर्मसे युक्त होनेपर ही इस लोक ओर परलोके
अत; विद्वान् पुरुष पापसे प्राप्त होनेवाले धनमें | सुख एवं अभ्युदयको प्राप्त होता है।
अनुराग न रखे। एकमात्र धर्म ही मनुष्योका | सुनियोनि पृछा - भगवन्! आपने यह भलीभाति
* एकः प्रसूयते थिप्रा एक एव हि नश्यति । एकस्तरति दुर्गाणि गच्छत्येकस्तु दुर्गतिम्॥
असहायः पिता माता तथा भ्राता सुतो गुरुः । सातिसम्नन्थिवर्णश्च मित्रवर्गस्तथैव च॥
मृतं शरीरमूत्सृज्य काष्ठलोष्टसमं जनाः। मुहूर्तमिव रोदित्वा ततो यान्ति पराड्मुखाः॥
नैस्तच्छरीरमुत्सष्टं धमं एकोऽनुगच्छति । तस्माद्धर्मः सहायश्च सेवितव्यः सदा नृभिः॥
प्राणो धर्मसमायुक्तों गच्छेत्स्वर्गगतिं पराम् । तथैवाधर्मसयुो नरकं चोपपद्यते ॥
तस्मात्पापागैरयैंनानुरण्येत घण्डित:। धर्म एकों मनुष्याणां सहायः परिकीर्तित:॥
लोभाग्मोहादनुक्रोशाद्धयाद्वाथ यहुल्लुत:। नरः करोत्यकार्याणि परार्थे लोभमोहितः॥
धर्मार्धश्च कामश्च त्रितयं जीवतः फलम् । एतत्त्रयमवाप्तव्यमधर्मपरिवर्जितम् ॥
(२१७। ४-११)