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अस्सो हजार योजन के विस्तार में फैला हुआ ह । यह पर्वत

सिद्धो ओर चारणो से संकोर्णं है और देवर्षिगण भी इसका

सेवन किया करते हैं।

त्र पुष्करिणी रम्या सुपुप्ना नापर नापतः॥ ४७॥

तत्र गला द्विजो विद्वा्रह्हत्यां विगुञ्जति।

श्राद्धं भवति चाक्षय्यं तत्र दत्त महोदयप्‌॥४८॥

तारयेध पितृन्सप्यष्दश पूरवादिशापरान्‌।

सर्वत्र हिमवान्‌ पण्यो गंगा पण्या सर्मततः॥ ४९॥

वहाँ पर एक अतीव रमणीय पुष्करिणी है जिसका नाम

तो सुपुप्ना है । वहाँ पर विदान द्विज जाकर ब्रह्महत्या के पाप

से भो छूट जाता है। वहाँ पर किया हुआ श्राद्ध अक्षय होता

है तथा दान देना महान्‌ उन्नतिकारक होता है। वहाँ श्राद्ध

करने वाला पुरुष अपने से पहले के दस और बाद के भौ

दस बंशजों को तार देता है। जैसे हिमवान्‌ गिरि सर्वत्र महान्‌

पृण्यशाली है उस तरह उसमें भागीरथी गंगा भी सभी ओर

से पुण्यमयी है।

नच: सपुद्रगा: पुण्याः यद्र विशेषत:।

वदर्वाश्रपमासा मुच्यते सर्वकिल्विषान्‌॥॥५५०॥

तत्र नायणो देवो मरेणास्ते सनातन:।

अक्षयं तत्रं दानं प्याच्छरा्धदानादिकञ्च यत्‌॥॥५१॥

महादेयप्रिय॑ तीर्थ पावनं तहिशेषत:।

तारबेब पितृन्सर्वान्दत्त्वा श्राद्धं सपाहितः॥॥५२॥

समुद्र की ओर जाने वाली सभी नदियाँ परम पृण्यमयी-है

ओर समुद्र तो विशेषरूप से पुण्यज्ञालो है। बदरिकाश्रम में

पहुँचकर मनुष्य सधौ प्रकार के पापों से मुक्त हो जाता है।

ठस धाम में साक्षात्‌ सनातन देव श्रोनारायण नर के साथ

विराजमान हैं। उस धाम में जो भी दान किया जाता है और

श्राद्ध आदि किये जाते हैं वे सभी अक्षय फल देने वाला

होता है। यह महादेव का अतिप्रिय तोर्थ विशेषरूष से पावन

है। तहाँ पर परम समाहित होकर यदि कोई श्राद्ध देता है तो

ह अपने सभी पितृगणों का उद्धार कर देता है।

देवदारुवन॑ पुण्यं सिद्धगर्वसेविनम्‌।

पहता देवदेवेन तत्र दत्त महेश्वरम्‌॥ ५३॥

पोहयित्वा मुनीन्पर्वान्मपस्तैः सप्प्रपूजित:।

प्रसन्नो भगवानीशो पुनीद्रान्‌ प्राह भावितान्‌॥ ५४॥

इषाश्रमयरे रथ्ये मिवमिष्यव सर्वदा

मद्धावनासमायुक्तास्ततः सिद्धिपवाप्स्यय॥५५॥

यत्र पामर्चयन्तीह लोके धर्पपरायणाः।

कूर्पपह्मापुराणप्‌

तेषां ददापि परमं गाणपत्यं हि शाश्वतम्‌॥ ५६॥

देवदारु नामक एक बन है जिसमें सिद्ध और गन्धवा के

समुदाय रहा करते हैं। वहाँ पर मान्‌ देवों के धो देव ने

महेश्वर दिया है। समस्त महामुनीन्द्रों के द्वार भलौ-भाँति

पूजन किये गये देव ने उन समस्त मुनिगणों को मोहित

करके भगवान्‌ परम प्रसन्न हुए थे तथा ईश ने उन भाव

भाविते मुनिगणों से कहा था कि आप सब लोग इस परम

श्रेष्ठ सुरम्य आश्रम में सर्वदा निवास करोगे। मेरी भावना से

समायुक्त होकर हो आप लोग सिद्धि को प्राप्त करेंगे। जहाँ

पर धर्मपशयण होकर जो मेरी पूजा किया करते हैं उनको मैं

परम शाश्वत गाणपत्य पद प्रदान किया करता हूँ।

अग्र नित्यं वसिष्यासि सह नारायणेन तु।

प्राणानिह नरस्त्यक्त्वा न भूयो जन्य चाणुयात्‌॥५७॥

संस्परतति च ये तीर्थ देशानरगत्ता जनाः।

तेषाश्च सर्वपापानि नाशयाधि द्विजोत्तमाः॥५८॥

शराद्धं दान तपो होम: पिण्डनिर्वपणं त्वा।

ध्यान जपश्च नियमः सर्वमत्राक्षयं कृतम्‌॥५९॥

मैं यहाँ सदा भगवान्‌ नारायण के साथ वास करूगा। जो

मनुष्य यहाँ निवास करते हुए अपने प्राणों को त्याग करते हैं

वे फिर दूसरी बार इस संसार में जन्म ग्रहण नहीं करेगा। जो

अन्य देशों में निवास करने वाले भी मनुष्य इस तोर्थ का

संस्मरण किया करेंगे हैं, हे द्विजोत्तमो! उनके भी सारे पापों

को पैं नष्ट कर देता हूँ। यहाँ पर किये हुए श्राद्ध-दात-तप-

होम तथा पिण्डदान, ध्यान-जाप-नियम सभी कुछ अक्षय

जाया करता है।

तस्मात्सर्वप्रवलेन द्रष्टव्यं हि द्विजातिभिः।

देवादास्यनं पुण्यं प्होदेवनिपेयितम्‌।। ६०॥

य्रशवरो महादेयों विष्णुर्यो पुरुपो्तपः।

तग्र सन्निहिता गंगा तीर्थान्यायतनानि च॥ ६९॥

इसौलिये सब प्रकार से प्रयत्रपूर्वक द्विजातियों को इस

तीर्थ का दर्शन अवश्य हौ करना चाहिए। यह देव दारूवन

परम पुण्यमय है और महादेव के द्वारा निषेवित है। यहाँ पर

ईश्वर, महादेव अधवा भगवान्‌ पुरुषोत्तम विष्णु स्वयं

विराजमान हैं। बहौ पर गंगानौ अन्य तोर्थ तथा आयतन

समीपम स्थित हैं।

इति श्रीकूर्मपुराणे उत्तरा््धे तीर्थवर्णन॑ नाप

स्रिशोऽध्याय॥ ३७॥

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