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३५६ सर अख्रीविष्णपुराण रक्कऋनरऊऊरऊकऊकुा [{ अ०१८

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अठारहवाँ अध्याय

भगवानका मशथुराको प्रस्थान, गोपियोंकी विरह-कथा और अक्वूरजीका मोह

श्रीपराझर उत्नाच

चिन्तयन्निति गोविन्दमुपगप्य स यादव: ।

अक्कूरोउस्मीति चरणों ननाम शिरसा हरेः ॥ १

सोऽप्येनं ध्वजवच्राग्नकृतचिह्धेन पाणिना ।

संस्पृश्याकृष्य च प्रीत्या सुगाढं परिषस्वजे ॥ २

कृतसैवन्दनौ तेन॒ यथाबइलकेशवोौ ।

ततः प्रविष्टौ संहष्टो तमादायात्ममन्दिरम्‌॥ हे

सह ताभ्यां तदाक्रूरः कृतसंवन्दनादिक: ।

भुक्तभोज्यो यथान्यायमाचचक्षे ततस्तयोः ॥ ४

यथा निर्भतिसितस्तेन कंसेनानकटुन्दुभिः ।

यथा च देवकी देवी दानवेन दुरात्मना ॥ ५

उम्रसेने यथा कंसस्स दुरात्मा च वर्तते ।

यं चैवाथ समुद्दिश्य कंसेन तु विसर्जितः ॥ ६

तत्सर्वं भगवान्देवकीसुतः ।

उवाचाखिलमप्येतज्जञातं दानपते मया ॥ ७

करिष्ये तन्यहाभाग यदत्रौपयिकं मतम्‌ ।

विचिन्त्यं नान्यथेतत्ते विद्धि कंसं हतं मया ॥ ८

अहं रामश्च मथुरां श्वो यास्थावस्सह त्वया ।

गोपवृद्धाश्च यास्यन्ति ह्यादायोपायने बहु ॥ ९

निशेयं नीयतां वीर न चिन्तां कर्तुमर्हसि ।

त्रिरात्राभ्यन्तरे कसं निहनिष्यामि सानुगम्‌ ॥ १०

श्रीपराटार उयाच

समादिश्य ततो गोपानक्रूरोऽपि च केशव: ।

सुप्रापा बलभद्रश्न॒ नन्दगोपगृहे ततः ॥ ११

ततः प्रभाते विमले कृष्णरामौ महाद्युती ।

अक्रूरेण समं गन्तुमुद्यतौ मथुरां पुरीम्‌ ॥ १२

दृष्टा गोपीजनस्सास्रः इरूथद्रलयवाहुकः ।

निःशश्वासातिद्‌ः खारः प्राह चेद परस्परम्‌ ॥ १३

मथुरां प्राप्य गोविन्दः कथं गोकुलमेष्यति ।

नगरखीकल्कालापमधु श्रोत्रेण पास्यति ॥ १४

श्रीपराद्ारजी जोले--हे मैत्रेय ! यदुवंशी

अक्रूरजीने इस प्रकार चिन्तन करते श्रीगोविन्दके पास

पहुँचकर उनके चरणोंमें सिर झुकाते हुए ग अक्र हूँ" ऐसा

कहकर प्रणाम किया ॥ ६ ॥ 'भगवानने भी अपने ध्वजा-

यज-पद्माद्धित करकमलॉसे उन स्पर्शकर और प्रीतिपूर्वक

अपनो ओर खींचकऋर गाढ्‌ आलिद्गन किया ॥ २॥

तदनन्तर अक्रूरजोके यथायोम्य प्रणामादि कर चुकनेपर

श्रीबलरामजी और कष्णचन्द्र अति आनन्दित हो उन्हें साथ

केकर अपने घर आये ॥ ३॥ फिर उनके द्वारा सत्कृत

होकर यथायोग्य भोजनादि कर चुकनेपर अग्रूरने उनसे

बह सम्पूर्ण वृत्तान्त कहना आरम्भ किया जैसे क्र दुरात्मा

दानव कंसने आनकदुन्दुभि वसुदेव और टेव देवक्तीको

दरा था तथा जिस प्रकार वह दुरात्मा अपने पिता

उम्रसेनसे दुर्व्यवहार कर रहा है और जिस लिये उसने उन्हें

(अक्रूरजीको) वृन्दावन भेजा है ॥ ४-६ ॥

भगवान्‌ देवकौनन्दनने यह सम्पूर्ण वृत्तान्त खिस्तार-

पूर्वक सुनकर कहा--“'हे दानपते ! ये सब बातें मुझे

मालूम हो गयीं ।। ७ ॥ है महाभाग ! इस विषयमे मुझे जो

उपयुक्त जान पड़ेगा वही करूँगा। आय तुम कसको

भेद्या मरा हुआ हो समझो, इसमें किसी और तरहका

निच न करो ॥ ८ ॥ भैया बलराम और मैं दोनों ही कल

तुम्हारे साथ मथुरा चलेंगे, हमारे साथ ही दूसरे बड़े-बूढे

गोप भी बहुत-सा तपहार लेकर जायैंगे ॥ ९ ॥ हे वीर !

आप यह रात्रि सुखपूर्तक बिताइये, किसी प्रकारकी चिन्ता

न कीजिये। तीन रात्रिकि भीतर में कसको उनके

अनुचरोंसहित अयश्ष्य मार डुग" ` ॥ १० ॥

श्रीपराङ्रजी खोल्ले--तदनन्तर. अक्रूरजी,

श्रोकृष्णचन्द्र और बलरामजी सम्पूर्णं गोरपोको कसक

आज्ञा सुना नन्दगोपकरे घर सो गये ॥ १९ ॥ दूर दिन

निर्मल प्रभातकाल होते ही महातेजस्वी राम और कृष्णकरे

अक्रूरफे साथ मधुरा चलनेकी तैयारी करते देख जिनकी

भुजाओंके ककण ढीले हो गये हैं वे गोपियाँ नेत्रो आँसू

भरकर तथा दुःखार्त होकर दीर्घ निदा छोडती हुई

परस्पर कहने रग -- ॥ १२-१३ ॥ “अब मथुरापुर

जाकर श्रोकष्णचन्द्र फिर गोकुलमें क्‍यों आने लगे ?

क्योंकि यहाँ तो ये अपने कामनोंसे नगरनारियोंके

मधुर आल्लापरूप मधुका ही पान करेंगे ॥ शृड ॥

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