अकच ही सम्पूर्ण गुगोंछा आलय और अदेशा ही समस्त
कलाओं निधि था। बह एक द्वी सब पुरेति उत्तम
या, इसलिये “पुरुषोत्तम! कहलाया । तत्पश्चान् मदामदिमाते
विभूषित उख महान् पुर्षझों देखकर महादेवजीने कदा-
“अच्युत ! त॒म महाविष्णु हो तुम्हारे निःश्वाससे वेद प्रकट
होंगे और उनते तुम सव कुछ जानोगे |” उनसे ऐसा ककर
भगवान् शिव शिवाके साथ पुनः आनन्दकाननमें प्रवेश
कर गये ।
तत्यश्ात् भगवान् विष्णुने क्षणमर ध्यानम त्वर हो
तंयस्यामें मन गावा । उन्होंने अपने चते एक सुन्दर
पुष्करिणी खोंदकर उसे अपने दारीस्के पसीनेके ज़लसे भर
दिया । फिर उसीके किनारे घोर तपस्या की । तब शिवज्ञी
पार्वतीजीके साथ वहाँ प्रकट हुए. और ग्रोले--मद्राबिष्णों !
शर माँगो |
श्रीचिष्णु बोले-देवदेव मदेखर ! यदि आप पसनन
£ तो मैं सदा भवानीसदित आपका दर्शन करना चाश्वा ।
अगवान शिव वोद---‹एवमस्तुः । ज़ताईन ! इस
स्थानपर भेरी मजिजदित इरिका ( मणिमय कुण्डल ) गिर
पढ़ी है, इसलिये इस तीर्थका नाम मणिकर्णिका हो ।
आबिष्णुने कहा-प्रमो ! यदो मुक्ताय कुण्ड
गिरनेसे षह उत्तम तीथं मुक्तिका प्रधान क्षेत्र हो । यहाँ
शिवस्वरूप अनिर्वचनीय ज्योति प्रकाशित होती है। इसलिये
ल्ल
इसका दूसरा नाम (कासीः प्रसिद्व हो । चार प्रकारके जीय-
समुदायमे ब्रह्मते केकर कीटतरू जितने भी जीव हैं; वे सब
काशी मरनेपर मोशकों प्राप्त हों तथा इस मणिकर्णिका
नामक येष्ठ तीर्षमे स्नानः ख्ध्या, जप) होम, वेदाध्ययन+
तर्पण, पिण्डदानः गौः भूमिः ति) सुवर्ण, अश्व, दीप, अन्न)
यख, आभूषण और कन्था--श्न सबका दान, अनेक यर,
ब्रतोचापन, शृषोत्तगं ओर शिवलिङ्ग आदिकी स्थापना--
इत्यादि शुभकमोंकों जो बुद्धिमान् मनुष्य करे, उसके
उस कर्मका फल मोक्ष हो । ओद, जो होगा और जे हो
चुका रै उस ते मह॒ क्षेत्र अधिक एवं
थ्रुमोदय ऊरी हो । काशीका नाम छेनेयाके छोगोंके भी पापका
सदा ही क्षय हो।
श्रीमहादेवजी बोले--महशाक्षाहु विष्णु | तुम नाना
प्रकारकी यथायोग्य सृष्टि करो और जो पापके मार्गपर
जडनेवाले दुष्टात्मा हैं; उनका संहार करनेमे कारण यनो । यह
पौच-पाच कोसका लंबा-चोड़ा क्षेत्र काशीघाम मुझे वहुत प्रिय
है। यहाँ केयछ मेरी आशा चल सकती है, यमराज आदि
दूसरोंकी नहीं । अविमुक्त क्षेत्रमँ निभ्रास करनेवाले पापी
जीर्वोकाभी मैं ही शासक हूँ, दूसरा नहीं | काठीसे सौ
योजन दूर रहकर भी जो इस क्षेत्रका मन-ही-मत स्मरण करता
ह, वह पोते पीड़ित नहीं होता । काशीमें पटु मनुष्य
उसके पुण्ये मोक्षपदका भागी होता दै | जो मन-इन्दियोंकों
यधमें रखकर कालीम अहुत समयत नियास करके भी
दैबयोगसे अन्यत्र सृस्युकों पराम होता है, यह भी स्वर्गीय
सु भोगकर अन्तम काग्रीकों प्रात हो मोध्षसम्धत्तिकों पा
लेता है । जो भगवान् विश्वनाथकी प्रसश्नताके लिये कार्यी
न्यापपूर्यक धन दैवा है; अथवा निघन ( मृत्यु )को प्रप्र होता
है, वह धस्य है और वही भर्मका शाता है । पाँच कोंसछा
लंबा-चौड़ा सम्पूर्ण अविमुक्त क्षेत्र विश्वनाथ नापे प्रसिद्ध एक
उ्योतिरिङ्गसवरूप रै, ऐसा ऋनना चाहिये । जैगे आकाझके
एक देने स्थित दोनेपर भी सर्वगत सूर्यमण्डल तवको
दिखायी देता ६, उसी प्र्चवर विश्चनाय केच डान स्थित
शोर भी सर्वव्यापी दोनेके कारण सर्वत्र उपछठ्ध होते हैं।
ओ क्षेत्रफी मदिमाश्ने नदीं कानता, शिजमें अंद्धांका सर्पपा
अभाव दै, वह भी यदि समयानुभार कांशीमे प्रवेश कर गयाः
तो निष्पाप हो जाता है और यदि यहाँ उसी मृत्यु हो गयी
तो वह मी मोक्ष श्राति कर छेता है | कारी पाप करके भी
मनुष्य यदि काची ही मर जाय; तो पके रुदरपिश्चाच होकर