* अध्याय २८८ *
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अश्वारोही वीर अश्वके कर्णमें उसका जप करके
शत्रुओंको मोहित करता हुआ अश्वको युद्धस्थलमें
लाये और उसपर आद् हो युद्ध करते हुए विजय
प्राप्त करे। श्रेष्ठ अश्वारोही घोड़ोंके शरीरसे उत्पन्त
दोषोंकों भी प्रायः यत्नपूर्वक नष्ट कर देते हैं तथा
उनमें पुनः गुणोंका विकास करते हैं। श्रेष्ठ
अश्वारोहियोंद्वारा अश्वमें उत्पादित गुण स्वाभाविक-
से दीखने लगते हैं। कुछ अश्वारोही तो घोड़ोंके
सहज गुणोंको भी नष्ट कर देते हैं। कोई अश्रोंके गुण
और कोई उनके दोषोंको जानता है। वह बुद्धिमान्
पुरुष धन्य है, जो अश्च-रहस्यको जानता है।
मन्दबुद्धि मनुष्य उनके गुण-दोष दोनोंको ही नहीं
जानता। जो कर्म ओर उपायसे अनभिन्ञ है, अश्वका
बेगपूर्वक वाहन करनेमें प्रयब्रशील है, क्रोधी एवं
छोटे अपराधपर कठोर दण्ड देता है, वह अश्वारोही
कुशल होनेपर भी प्रशंसित नहीं होता है। जो
अश्वारोही उपायका जानकार है, घोड़ेके चित्तको
समझनेवाला है, विशुद्ध एवं अश्वदोषोंका नाश
करनेवाला है, वह सम्पूर्णं कर्मोमिं निपुण सवार सदा
गुणोकि उपार्जनमें लगा रहता है । उत्तम अश्वारोही
अश्चको उसकी लगाम पकड़कर बाहाभूमिमें ले
जाय। वहाँ उसको पीठपर बैठकर दायें-बायेंके
भेदसे उसका संचालन करे। उत्तम घोड़ेपर चढ़कर
सहसा उसपर कोड़ा नहीं लगाना चाहिये; क्योकि
वह ताड़नासे डर जाता है और भयभीत होनेसे
उसको मोह भी हो जाता है। अश्वारोही प्रातःकाल
अश्वको उसकी वल्गा (लगाम) उठाकर प्लुतगतिसे
चलाये। संध्याकालमें यदि घोड़ेके पैरमें नाल न हो
तो लगाम पकड़कर धीरे-धीरे चलाये, अधिक
वेगसे न दौड़ाये ॥ २०--२८॥
ऊपर जो कानमें जपनेकी बात तथा अश्व-
संचालनके सम्बन्धमें आवश्यक विधि कही गयी
है, इससे अश्वको आश्वासन प्राप्त होता है,
इसलिये उसके प्रति यह “सामनीति'का प्रयोग
हुआ। जब एक अश्व दूसरे अश्वके साथ (रथ
आदिमे) नियोजित होता है, तो उसके प्रति यह
' भेद-नीति' का बर्ताव हुआ। कोड आदिसे अश्वको
पीटना--यह उसके ऊपर "दण्डनीति" का प्रयोग
है। अश्वको अनुकूल बनानेके लिये जो काल-
विलम्ब सहन किया जाता है या उसे चाल
सीखनेका अवसर दिया जाता है, यह उस अश्वके
प्रति 'दान-नीति 'का प्रयोग समझना चाहिये॥ २९ ॥
पूर्व-पूर्व नीतिकी शुद्धि (सफल उपयोग) हो
जानेपर उत्तरोत्तर नीतिका प्रयोग करे। घोड़ेकी
जिह्वाके नीचे बिना योगके ग्रन्थि बाँधे। अधिक-
से-अधिक सौगुने सूतकों बैँटकर बनायी गयी
वल्गा (लगामको) घोडेके दोनों गल्फरोंमें घुसा
दे। फिर धीरे-धीरे वाहनको भुलावा देकर लगाम
ढीली करे। जब घोड़ेकी जिट्ला आहीनावस्थाको
प्राप्त हो, तब जिह्वातलकी ग्रन्थि खोल दे।
जबतक अश्च स्तोभ (स्थिरता)-का त्याग न करे,
तबतक गाढ़ताका मोचन करे--लगामको अधिक
न कसे। उरस्त्राणको तबतक खूब कसा-
कसा रखे, जबतक अश्व मुखसे लार गिराता रहे।
जो स्वभावसे ही ऊपर मुँह किये रहे, उसी
अश्वका उरस्त्राण खूब कसकर श्रेष्ठ घुड़सवार
उसे अपनी दृष्टिके संकेतपर लीलापूर्वक चला
सकता है॥ ३०--३३ २ ॥
जो पहले घोड़ेके पिछले दायें पैरसे दाई वल्गा
संयोजित कर देता है, उसने उसके दायें पैरको
काबूमें कर लिया। इसी क्रमसे जो बायीं वल्गासे
घोड़ेके बायें पैरको संयुक्त कर देता है, उसने भी
उसके वाम पैरपर नियन्त्रण पा लिया। यदि अगले
पैर परित्यक्त हुए तो आसन सुदृढ़ होता है। जो पैर
दुष्कर मोटनकर्ममें अपहत हो गये, अथवा बायें
पैरमें हीन अवस्था आ गयी, उस स्थितिका नाम