काशीखण्ड-पूर्वा् ]
# काशौकी उत्पक्ति-कथा, कादी और मणिकर्णिकाका माहात्म्य #
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उस समय वह अपनी सुघनबुध लो बेठता है । इसी तमय
खाक्ात् भगवान् विद्वनाय प्रॉणत्यागकाछमें उपस्थित शे
उथ मभू जीवको तारक मन्वका उपदेश देते हैं, जिसते वह
शिवस्यरूप हो जाता है । अतः अतिशय पासि भरे हुए. इस
मआनव-दारीरकों अनित्य जानकर मनुष्य संसारमयका नादा
करनेवाले काशीक्षेत्रद्या सेवन करे । जो विष्नोंसे आदत
ोनेपर मी काशीक्षेत्रफा त्याग नहीं करता, वह मोक्ष-सम्पत्ति-
को पाकर ऐसी ख्थितिमें पहुँच जाता दै, जहाँ दुःखका सर्थपा
अभाय है । अतः कौन रेखा बुद्धिमान् पुरुष है, जो वढ़े-बढ़े
पापपुञ्जका नाश तथा पुर्यो दधि करनेबाली और अन्तमे
भोग एवं मोक्ष देनेवाली काशीपुरीका सेयन न करेगा १ अविम॒क्त
छ्षेत्रके माशात्म्यका मैं केवल छः मुखोंसे किस प्रकार वर्णन
कर सता हूँ; जय कि दोषनाग सदश्च मु्खोत्रे मी उसका
यर्णन करनेमें असमर्थं हैं ।
नकद
कांशीकी उत्यतति-कथा, काशी और मणिकर्णिकाका माहात्म्य
लक
अगस्त्यजीने पूछा--भगषन् ! यह अधिमुक्त क्षेत्र
इस भूतप कवते प्रसिद्ध हुआ और किस प्रकार यर मोक्ष
.देनेयास्य हुआ !
स्कस्व् योद्धे--रुने ! मेरे पिता महादेवजीने माता
वार्वतीको इसी प्रश्ना उत्तर इस प्रकार दिया था--
अहप्रतल्यकालमें उमस्त चराचर प्राणी न्ट हो गये थे ।
सर्वत्र अन्धकार छा रहा था । सूर्यं, चन्द्रमा, ब्रह, मक्षत्र+
दिन, रात आदि कुछ भी नहीं था । केवल वह सत्स्वरूप ब्रह्म
ही शेष था, जिसका भति "एकमेवाद्वितीयम् कहकर वर्जन
करती है| बह मन और वाणीका विषय नहीं है। उसका न
कोई नाम है; न रूप। वह षल्य, शान, अनन्त, भनन्दस्वरूप
वं परम प्रकाश्ममय है । वहाँ किसी भी प्रमाणकी पहुँच नहीं
है। कद आधाररहित, निर्विकार एवं निराकार है । निर्गण+
योगिगम्य, सर्वव्यापी, एकमात्र कारण; निर्विकस्प, कमेक
आरम्भोसि रदित, मायासे परे और उपद्रवधल्य है । जिस
परमात्मा लिये इस प्रकार विशेषण दिये अति हैं। यह
कल्पान्तमें अकेला दी था । कल्पके आदिमे उसके मनमें यह
संकस्प हुआ कि भ एकसे दो हो जाऊँ। अतः यथपि वह
निराकार दे तो मी उसने आपनी छीछाशक्तिसे साकाररूप
धारण किया । परमेश्वरके सक्कल्पते प्रकट हुईं वह द्वितीय
मूर्ति सम्पूर्ण ऐेश्यर्य-गु्जोति युक्त, सर्वेशालमथी, शमः
अर्वा चीन विद्वान् मुषे ईश्वर कहते ह । तदनन्तर साकार
रूपमें प्रकट होकर भी मैं अकेला दी स्वेच्छानुसार विहार
करता रहा । फिर अपने शरीरते कमी अछग न होनेवाली
चुम प्रकृतिकों मैंने अपने ही विग्नहले प्रकट किया । तुम्हीं
प्रधान प्रकृति ओर गुणबत्ती माया हो । तुम्हें बुद्धितत्त्वकी
अननी तथा निर्विकार ग्रताया जाता दै | फिर एक दी समय
मुझ्न काझस्वरूप आदिपुरुषने तुम शाक्तिके साथ उस काशी-
क्षेत्रों भी प्रकर क्रिया।
दोनों उस परमानन्दमय काशीक्षेत्रम
रमण करने ले । उस क्षेत्रका परिमाण पोच कोसका
गताया गया है। मने ! प्रंछयकालमें भी उन दोनो
उस समय अपने विहारके लिये जगदीश्वर शियने इस क्षेत्रका
निर्माण किया है। कुम्मज ! काशीक्षेत्रके इस रहस्यकों कोई
नहीं जानता । यह काश्ीस्षेत्र मगयान, सिक्के आनन्दका
ह है, इसलिये उन्होंने पहले इसका नाम +आनन्द्वन? रक्खा
था । उस आनन्दफाननमे इधर-उघर जो सम्पूर्ण शिषलिन्
हैं, उन्हें अनन्धकन्दके ग्रीजोंके माँति आनना
चादिये । तंदनन्तर भगवान् शिवने सब्िदानन्दरूपिणी
जगदम्याके साथ अपने वायं अङ्गने अमृत री वर्षा करनेवाली
दृष्टि डाछी । तय उससे एक ब्रिभुषनसुन्दर पुरुष प्रकट
हुआ, हो परम यान्त, सत्यगुगये पूर्ण, समुद्रसे भी अधिक
गम्भीर और क्षमावान् था । उसके अक्लोंकी कान्ति
इन्द्रनीकमणिके समान श्याम थी । नेत्र विकषित कमछदछके
समान सुन्दर थे । उससे सुवर्णरंगके दो सुन्द्र
कीताम्बरोंत अग्ने शरीरको आच्छादित कर र्का धा।
अ सुन्दर एवं प्रचण्ड युगल आहुदण्डोंसे सुशेमित या।
उसके नामिरूमल्ये बी उत्तम सुगन्ध फेक रही थी । वह