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काशीखण्ड-पूर्वा् ]

# काशौकी उत्पक्ति-कथा, कादी और मणिकर्णिकाका माहात्म्य #

५८१

उस समय वह अपनी सुघनबुध लो बेठता है । इसी तमय

खाक्ात्‌ भगवान्‌ विद्वनाय प्रॉणत्यागकाछमें उपस्थित शे

उथ मभू जीवको तारक मन्वका उपदेश देते हैं, जिसते वह

शिवस्यरूप हो जाता है । अतः अतिशय पासि भरे हुए. इस

मआनव-दारीरकों अनित्य जानकर मनुष्य संसारमयका नादा

करनेवाले काशीक्षेत्रद्या सेवन करे । जो विष्नोंसे आदत

ोनेपर मी काशीक्षेत्रफा त्याग नहीं करता, वह मोक्ष-सम्पत्ति-

को पाकर ऐसी ख्थितिमें पहुँच जाता दै, जहाँ दुःखका सर्थपा

अभाय है । अतः कौन रेखा बुद्धिमान्‌ पुरुष है, जो वढ़े-बढ़े

पापपुञ्जका नाश तथा पुर्यो दधि करनेबाली और अन्तमे

भोग एवं मोक्ष देनेवाली काशीपुरीका सेयन न करेगा १ अविम॒क्त

छ्षेत्रके माशात्म्यका मैं केवल छः मुखोंसे किस प्रकार वर्णन

कर सता हूँ; जय कि दोषनाग सदश्च मु्खोत्रे मी उसका

यर्णन करनेमें असमर्थं हैं ।

नकद

कांशीकी उत्यतति-कथा, काशी और मणिकर्णिकाका माहात्म्य

लक

अगस्त्यजीने पूछा--भगषन्‌ ! यह अधिमुक्त क्षेत्र

इस भूतप कवते प्रसिद्ध हुआ और किस प्रकार यर मोक्ष

.देनेयास्य हुआ !

स्कस्व्‌ योद्धे--रुने ! मेरे पिता महादेवजीने माता

वार्वतीको इसी प्रश्ना उत्तर इस प्रकार दिया था--

अहप्रतल्यकालमें उमस्त चराचर प्राणी न्ट हो गये थे ।

सर्वत्र अन्धकार छा रहा था । सूर्यं, चन्द्रमा, ब्रह, मक्षत्र+

दिन, रात आदि कुछ भी नहीं था । केवल वह सत्स्वरूप ब्रह्म

ही शेष था, जिसका भति "एकमेवाद्वितीयम्‌ कहकर वर्जन

करती है| बह मन और वाणीका विषय नहीं है। उसका न

कोई नाम है; न रूप। वह षल्य, शान, अनन्त, भनन्दस्वरूप

वं परम प्रकाश्ममय है । वहाँ किसी भी प्रमाणकी पहुँच नहीं

है। कद आधाररहित, निर्विकार एवं निराकार है । निर्गण+

योगिगम्य, सर्वव्यापी, एकमात्र कारण; निर्विकस्प, कमेक

आरम्भोसि रदित, मायासे परे और उपद्रवधल्य है । जिस

परमात्मा लिये इस प्रकार विशेषण दिये अति हैं। यह

कल्पान्तमें अकेला दी था । कल्पके आदिमे उसके मनमें यह

संकस्प हुआ कि भ एकसे दो हो जाऊँ। अतः यथपि वह

निराकार दे तो मी उसने आपनी छीछाशक्तिसे साकाररूप

धारण किया । परमेश्वरके सक्कल्पते प्रकट हुईं वह द्वितीय

मूर्ति सम्पूर्ण ऐेश्यर्य-गु्जोति युक्त, सर्वेशालमथी, शमः

अर्वा चीन विद्वान्‌ मुषे ईश्वर कहते ह । तदनन्तर साकार

रूपमें प्रकट होकर भी मैं अकेला दी स्वेच्छानुसार विहार

करता रहा । फिर अपने शरीरते कमी अछग न होनेवाली

चुम प्रकृतिकों मैंने अपने ही विग्नहले प्रकट किया । तुम्हीं

प्रधान प्रकृति ओर गुणबत्ती माया हो । तुम्हें बुद्धितत्त्वकी

अननी तथा निर्विकार ग्रताया जाता दै | फिर एक दी समय

मुझ्न काझस्वरूप आदिपुरुषने तुम शाक्तिके साथ उस काशी-

क्षेत्रों भी प्रकर क्रिया।

दोनों उस परमानन्दमय काशीक्षेत्रम

रमण करने ले । उस क्षेत्रका परिमाण पोच कोसका

गताया गया है। मने ! प्रंछयकालमें भी उन दोनो

उस समय अपने विहारके लिये जगदीश्वर शियने इस क्षेत्रका

निर्माण किया है। कुम्मज ! काशीक्षेत्रके इस रहस्यकों कोई

नहीं जानता । यह काश्ीस्षेत्र मगयान, सिक्के आनन्दका

ह है, इसलिये उन्होंने पहले इसका नाम +आनन्द्वन? रक्खा

था । उस आनन्दफाननमे इधर-उघर जो सम्पूर्ण शिषलिन्

हैं, उन्हें अनन्धकन्दके ग्रीजोंके माँति आनना

चादिये । तंदनन्तर भगवान्‌ शिवने सब्िदानन्दरूपिणी

जगदम्याके साथ अपने वायं अङ्गने अमृत री वर्षा करनेवाली

दृष्टि डाछी । तय उससे एक ब्रिभुषनसुन्दर पुरुष प्रकट

हुआ, हो परम यान्त, सत्यगुगये पूर्ण, समुद्रसे भी अधिक

गम्भीर और क्षमावान्‌ था । उसके अक्लोंकी कान्ति

इन्द्रनीकमणिके समान श्याम थी । नेत्र विकषित कमछदछके

समान सुन्दर थे । उससे सुवर्णरंगके दो सुन्द्र

कीताम्बरोंत अग्ने शरीरको आच्छादित कर र्का धा।

अ सुन्दर एवं प्रचण्ड युगल आहुदण्डोंसे सुशेमित या।

उसके नामिरूमल्ये बी उत्तम सुगन्ध फेक रही थी । वह

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