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वृक्षयोनिमें जानेपर भी मेरी कृपासे इन्हें भगवानकी स्मृति
बनी रहेगी और मेरे अनुग्रहसे देवताओकि सौ वर्ष
बीतनेपर इन्हें भगवान् श्रीकृष्णका सान्निध्य प्राप्त होगा;
और फिर भगवानके चरणोंमें परम प्रेम प्राप्त करके ये
अपने लोकमें चले आयेंगे ॥ २१-२२ ॥
श्रीशुकदेबजी कहते हैं--देवर्षि नारद इस प्रकार
कहकर भगवान् नर-नारायणके आश्रमपर चले
गये #* । नलकूबर और मणिग्रीव--ये दोनों एक ही
साथ अर्जुन वृक्ष होकर यमलार्जुन नामसे प्रसिद्ध
हुए॥ २३ ॥ भगवान् श्रीकृष्णने अपने परम प्रेमी भक्त
देवर्षि नारदजीकी बात सत्य करनेके लिये धररे-धीरे
ऊखल घसीटते हुए उस ओर प्रस्थान किया, जिधर
यमलार्जुन वृक्ष थे॥ २४ ॥ भगवानने सोचा कि 'देवर्षि
नारद मेरे अत्यन्त प्यारे हैं और ये दोनों भी मेरे भक्त
कुबेरके लड़के हैं । इसलिये महात्मा नारदने जो कुछ कहा
है, उसे मैं ठीक उसी रूपमे पूरा करूँगा' † ॥ २५॥ यह
विचार करके भगवान् श्रीकृष्ण दोनों वृक्षोके बीचमें घुस
गवे गः । वे तो दूसरी ओर निकल गये, परन्तु ऊखल
टेढ़ा होकर अटक गया ॥ २६॥ दामोदर भगवान्
श्रीकृष्णकी कमरे रस्सी कसी हुई थी । उन्होंने अपने
पीछे लुढ़कते हुए ऊखलको ज्यों ही तनिक जोरसे खींचा,
त्यौ हौ पेड़ोंकी सारी जड़ें उखड़ गयी । समस्त
बल-विक्रमके केन्द्र भगवानका तनिक-सा जोर लगते ही
पेडकि तने, शाखा, छोटी-छोटी डालियाँ और एक-एक
पते काँप उठे और वे दोनों बड़े जोरसे तड़तड़ाते
* श्रीमद्धागवत्तं *
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हुए पृथ्वीपर गिर पड़े ॥ २७ ॥ उन दोनों वृक्षोमिंसे अग्निके
समान तेजस्वी दो सिद्ध पुरुष निकले । उनके चमचमाते
हुए सौन्दर्यसे दिशा दमक उठी । उन्होंने सम्पूर्ण लोकोकि
स्वामी भगवान् श्रीकृष्णके पास आकर उनके चरणोमिं सिर
रखकर प्रणाम किया और हाथ जोड़कर शुद्ध हृदयसे वे
उनकी इस प्रकार स्तुति करने लगे-- ॥ २८॥
उन्होंने कहा--सच्चिदानन्दघनस्वरूप ! सबको
अपनी ओर आकर्षित करनेवाले परम योगेश्वर श्रीकृष्ण !
आप प्रकृतिसे अतीत स्वयै पुरुषोत्तम हैं । वेदज्ञ ब्राह्मण
यह बात जानते हैं कि यह व्यक्त और अव्यक्त सम्पूर्ण
जगत् आपका ही रूप है॥२९॥ आप ही समस्त
अआणियोंके शरीर, प्राण, अन्तःकरण और इन्द्रियोंके स्वामी
हैं । तथा आप ही सर्वशक्तिमान् काल, सर्वव्यापक एवं
अविनाशी ईश्वर है ॥ ३० ॥ आप ही महत्त्व ओर वह
प्रकृति हैं, जो अत्यन्त सूक्ष्म एवं सत्वगुण, रजोगुण और
तमोगुणरूपा है । आप ही समस्त स्थूल और सूक्ष्म
शरीरोंके कर्म, भाव, धर्म और सत्ताको जाननेवाले सबके
साक्षी परमात्मा हैं॥ ३१ ॥ वृत्तियोंसे ग्रहण किये जानेवाले
प्रकृतिके गुणों और विकारोंके द्वार आप पकड़में नहीं आ
सकते । स्थूल और सूक्ष्म शरीरके आवरणसे ठका हुआ
ऐसा कौन-सा पुरुष है, जो आपको जान सके ? क्योंकि
आप तो उन शरीरोकि पहले भी एकरस विद्यमान
थे॥ ३२ ॥ समस्त प्रपञ्चके विधाता भगवान् वासुदेवको
हम नमस्कार करते हैं । प्रभो ! आपके द्वारा प्रकाशित
होनेवाले गुणोंसे ही आपने अपनी महिमा छिपा रक्खी
र
# १. शाप-कादानसे तपस्य क्षौण होती है । नलकू्र-मणिप्रीवको शाप देनेके पश्चात् नर-नारायण-आश्रमकी यात्रा केकः यह अभिष्ठय
है कि फिरसे तप-सद्धय कर लिक जाय ।
२. मैंने यक्षॉपर जे अनुप्रह किया है, वह बिना तपस्थाके पूर्ण नहीं हों सकता है, इसलिये ।
३. अपने आगाध्यदेव एवं गुरुदेव नारायणके सम्मुख अपना कृत्य निवेदन करनेके लिये ।
प भगवान् श्रीकृष्ण अपनी कृपादृष्टि उन मुक्त कर सकते ये । प्त वृक्षोके पास जानेका कारण यह है कि देवर्षि नारदने कहा था कि
त वासुदेवका साभ्रिध्य प्राप्त होगा ।
वृक्क बीचमें जानेका आशय यह है कि भगवान् जिसके अन्तश प्रवेश करते हैं, उसके जौवतमें क्लेशका लेश भी नहीं रहता ।
भीतर प्रवेश किये बिना दोनेका एक साथ उद्धार भी कैसे होता ?'
% जो भगवान्के गुण (भक्त-यात्सल्य आदि सद्गुण या रस्सी) से बैंघा हुआ है, यह तिर्यक् गति (पशु-पक्षो या टेढ़ो चालवाला) ही क्यों
न हो---दूसशेंका उद्धार कर सकता है ।
अपने अनुकायीके द्वारा किया हुआ करप जितना यशस्कर होता है, दान्ता अपने हाथसे नहीं | मानै, यही रेचक अपने पीछे-पीछे चलनेयाले
ऊखलके द्वारा उनका उद्धार करवाया।