कारीखण्ड-पूवौधं ]
# ओऔरीगज्ञाजीकी महिमा #
५८३
बह पुनः सुक्तिको प्रान कर छेगा । इत शरीएको नादावान्
जानकर और गर्भवासके रूमय ह्ोनेषाली मेदनाको याद करके
धन-धान्यते सम्म्न राज्यको भी त्यागकर निरन्तर काशीपुरीक।
सेवन करना चाहिये । अभी मैं नोजवान हूँ। अमी मेरी
मृत्यु बहुत दूर है, ऐसी वात चित्तमें कमी नहीं खानी
चाहिये । कृदावस्थाको प्राप्त शोनेके पठे ही पुरानी झोपदीकी
तरद अपने वुच्छ गृहकों त्यागं कर शीघ्र ख्करजीी पुरी
कारीकी यात्रा करनी चादिये।
्ीगङ्गाजीकी महिमा
धीमहादेवजी कहते विष्णो ! तर्ययंशके महा-
तेजस्वी परम धार्मिक राजा भगीरथ अपने पितामहोंका उद्धार
करनेकी इच्छासे तपस्याके लिये पर्व॑तभेष्ठ हिमवालकों गये।
हरे ! आ्राह्मणकी शापाप्रिसे दग्ध होकर बड़ी मारी दुर्गतिम
पड़े हुए. जीवोंकों गद्धाके सिया दूसरा कौन स्वर्गशोकमे
पहुँचा सकता दै, क्योंकि व शुद्ध, विद्यास्वरूपा, इन्झा+ शान
णवं फिपारूप तीन घकिपोंवाली, दयामपी, आनन्दाधृतरूपा
तया शुद्ध धर्मखरूपिणी हैं। जगदा पएखक्मसवरूपिनी
गङ्गा म असिक विश्वकी रक्षा करनेंके लिये लीलापूर्चफ अपने
मस्तरूपर धारण करवा दं | विष्णो ! जो मन्लाजीकां सेवन
करता है। उसने सब तीथो्मि खान कर लिया, खव यकौ
दीक्षा छे ली ओर हम्पूर्ण अरतोका अनुधरान पूरा खर छिया ।
ऋलियुगमें कछ्पित चित्तव, पराये भनक छोम रखनेयाले
तथा विधिद्वीन कर्म दरनेवाके मनुष्योंके छिये गद्भाजीके पिना
दूसरी फोर गति नहीं है। जो दूर एकर भी गज्जाओीके
मादात्पकों जनता है और भगवान् गोचिन्दमै भक्ति रखता
है। वद अयोग्य हो तो भी गन्ना उसपर श्रवन डोती हैं ।
अशन, राग और सोम आदिते मोदित चिच्तवाले पुरुपोंकी
धर्म और गद्गामें विशेष श्रद्धा नहीं होती । गज्जाके गर्भमें
मेरा तेजस्वरूप अप्नि टै, चद् मेरे वीरयते सुरक्षित है अतएव
सब दोरपोफो जटय्नेवाडी तथा सम्पूर्ण पापोंका नाश करनेवाली
है। जैसे वज़का मारा हुआ पर्वत सेकड़ों दकम विचर
जाता दै उसी श्रद्धर पाद्य समूह गज्ञाके स्मस्णमाजसे
शतधा नए दो जाता द । मो चलते, खड़े हेते, जप और
ध्यान करते, स्वाते-पीते, जागते-सेतिं तथा बात करते
समय भी सदा गड्भाजीका स्मरण इता रहता है, वह खंसार-
यन्धनने 4क्त दो जता दैक | जो पितरोंके उद्देश्यंगे भन.
वृर्षफ गुहु, थी और तिछके खाय गपुयुक्त लौर गद्नामें डालते
+ गच्ठील्तडत् जरवू ध्यायन् भ भन् प्र् स्वपन् बदन ।
यः सूरेद सतत शकना स॒ हि. उच्येत क्वनाद् ॥
( स्करपुर* रा० पू० ९१७३ ३७)
हैं, उसके पितर सौ वर्षतक तृप्र वने रहते हैं और वे सन्तुष्ट
होकर अपनी खन्वार्नोको नाना प्रकारकी मनोवाञ्छित द्रण
प्रदान करते हैं। मेषे बिना इच्छाके भी स्पर्श करनेपर
आग जहा ही देती टै, उसी प्रकार अनिच्छये भी अपने
जम खान फरनेपर गङ्गा मलुप्यकर प्राणदो भस्म कर देती
हैं॥ । जो गज्जा-स्लानके व्यि यत होकर चछता है और
मार्ग ही मर जाता है, यह भी निःसन्देद गन्ञा-ख्ानझा फल
पाता है। जो घेम खोरी शुद्धिवाठे, दुशचारी, दोय तक
करनेवाडे और अधिक र॒न्देद रखनेयाछे मोहित मनुष्य हैं वे
गज्ाक़ों अन्य साधारण नद्यो समान ही देखते हैं। जैसे
ऋ्रोघसे तपका, कामये शुद्धिकाः अस्यायसे छश्मीका। अभिमानसे
विद्याश्च तया पाखण्ड, कुटिछता और छछ-कपटसे धर्मका नाश
होता दै, उसी प्रकार गज्जञाजीके दर्शनमातसे सब पाप नष्ट हो
जाते हैं। जेते मन्तरोमे 3>कार, धर्मर्म अर्टिखा और
कमनीय वस्तुओंम टश्मी भे ट तथा जिम प्रकार विद्याओंमें
आध्मविया और स्त्रियोमें गौरीदेवी उत्तम हैं, उसी प्रकार
सम्पूर्ण तौ्भे गक्लतीर्थ विशेष माना गया है। हरे ! जो
परम बुद्धिमान् मनुष्य द्ुममें और मुझमें मेद-भाव नहीं
करता, यी दिवम जानने योग्य दे | अनेक रूपवाले पितर
शदा यह साधा गाते हैं कि 'ढंदा इमे कुछम भी कोई गज्जा
महानेयाढा रोगा, जो विधि और अद्धाफे साथ गद्ाख्रान
कर देवताओं तथा श्रुति भल्डीमति तदप करके दीनो,
अना और दुख्वोंकों तृत करते हुए. इमारे निमित्त
जल्यक्छ्ति देगा १ हमारे कुछम कोई ऐसा पुरुष उतपन्न हो,
जो भगवान् दिप और दिष्य समान एदि रथे हुए. उनके
दिये मन्दिर बनवाये भर मनू उस मन्दिरे झाहू
देने आद्धिवा कार्य करे ॥ जो गज्ञाका सवन करता है, बही
मत है और यही पव्यित है। वह धर्म, अर्थ, कॉम, मोझ
* अनिश्छकापि संसृष्ते इनो हि दया दहेद् ।
आनिच्छवोपि संखाता चक्ष पापं तथा देव् ॥
(ष्क पुण खर पू* २५७। ४९)