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८ ऋषवेद संहिता भाग - २

हम दोर्घ आयु और उत्तम पुत्रादि की प्राप्ति के लिए अग्निदेव की स्तुति करते हैं । हे अग्निदेव ! आप हमें

बल से पूर्ण करें । हमें अन्न आदि प्रदान करें । हे चैतन्य अग्निदेव ! आप महान्‌ यजमान को पूर्णायु से युक्त करें,

क्योकि आप उत्तम कर्म करने वाले तथा सतुपुरुषों एवं देवों के प्रिय हैं ॥७ ॥

२४८१. विश्पतिं यह्वमतिधिं नरः सदा यन्तारं धीनामुशिजं च बाघताम्‌ ।

अध्वराणां चेतनं जातवेदसं प्र शंसन्ति नमसा जृतिभिर्वृधे ॥८ ॥

मनुष्य अपनी समृद्धि के लिए पालक रूप, महान्‌, अतिथि के सदृश पूजनीय, बुद्धि के प्रेरक, ऋत्विजों के

प्रिय, यज्ञो के प्राण स्वरूप, जातवेदा अग्निदेव का नमनपूर्वक पूजन करते हैं ॥८ ॥

२४८२. विभावा देवः सुरणः परि क्षितीरम्निर्बभूव शवसा सुमद्रथः ।

तस्य व्रतानि भूरिपोषिणो वयमुप भूषेम दम आ सुवृक्तिभिः ॥९ ॥

स्तुत्य, उत्तम रथौ, दौप्तिमान्‌, दिव्यगुण सम्पन्न अग्निदेव अपने बल से सम्पूर्ण प्रजाओं को व्याप्त करते है ।

हम घरों में स्थित होकर अनेकों के पोषक अग्निदेव के सम्पूर्ण कर्मों को अपने उत्तम स्तो से विभूषित करते हैं॥९

२४८३. वैश्वानर तव धामान्या चके येभिः स्वर्विदभवों विचक्षण ।

जात आपृणो भुवनानि रोदसी अग्ने ता विश्वा परिभूरसि त्मना ॥१० ॥

हे दूरदर्श वैश्वानर अगमिदेव ! आप जिन तेजों के द्वारा सर्वज्ञाता हुए, उनकी हम स्तुति करते है । हे

अग्निदेव ! आपने उत्पन्न होकर ही च्रावा-पृथिवौ और सम्पूर्ण लोकों को प्रकाश से पूर्णं किया है । आप अपनी

शक्ति से सम्पूर्ण जनों को घेर लेने में समर्थ हैं ॥१० ॥

२४८४ वैश्वानरस्य दंसनाभ्यो बृहदरिणादेक: स्वपस्यया कविः ।

उभा पितरा महयन्नजायताग्निर्ावापृथिवी भूरिरेतसा ॥१९॥

वैश्वानर अग्निदेव के उत्तम कर्म से यजमानो को महान्‌ ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है । उत्तम यज्ञादि कर्म की

इच्छा से वे एकमात्र मेधावी अग्निदेव यजमानो को धनादि दान कर देते है । वे अग्निदेव अपने प्रचुर बल से दोनों

माता-पिता रूप द्यावा-पृथिबी को प्रतिष्ठा प्रदान करते हुए उत्पन्न हुए ॥११ ॥

[ सूक्त - ४ ]

[ ऋषि - विश्वाभित्र गाधिन । देवता - आप्रीसूक्त ( = १इध्म अग्नि अथवा समिद्ध अग्नि २ तनूनपात्‌ । ३

इत्छ; ४ बर्हि; ५- देवोद्वार: ६ उषासानक्ता । ७ दिव्य होता प्रचेतस्‌ । ८ तीन देवियाँ- सरस्वती; इव्य; भारती ;

९ त्वष्टा. १० वनस्पति ; ११- स्वाहाकृति) । छन्द - रिष्ट ।]

२४८५. समित्समित्सुमना बोध्यस्मे शुचाशुचा सुमतिं रासि वस्वः ।

आ देव देवान्यजथाय वक्षि सखा सखीन्त्सुमना यक्ष्यग्ने ॥१॥

समिधाओं से भली प्रकार प्रदीप्त हे अग्निदेव ! आप श्रेष्ठ मन से हमें चैतन्य करें । अतिशय पवित्र तेज से

युक्त होकर हमें उल्लसित मन से नादि प्रदान करें । हे अग्निदेव ! आप देवों को यज्ञ के लिए बुलाकर लाये ।

आप देवों के सखा रूप है । आप प्रसन्न मन से पित्र देवों का यजन करें ॥१॥

२४८६. यं देवासखिरहन्नायजन्ते दिवेदिवे वरुणो मित्रों अग्निः ।

सेमं यज्ञं मधुमन्तं कृधी नस्तनूनपाद्घृतयोनिं विधन्तम्‌ ।।२ ॥

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