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है। अन्यथा यात्रा करनेसे यात्रीकी पराजय होती

है ॥ ६३४॥

( शुक्रदोष-- ) शुक्र अस्त हों तो यात्रामें

हानि होती है। यदि वह सम्मुख हो तो यात्रा

करनेसे पजय होती है । सम्मुख शुक्रके दोषको

कोई भी ग्रह नहीं हटा सकता है । किंतु वसिष्ठ,

कश्यप, अत्रि, भरद्वाज और गौतम-इन पाँच

गोत्रवार्लोको सम्मुख शुक्रका दोष नहीं होता है ।

यदि एक ग्रामके भीतर ही यात्रा करनी हो या

विवाहमें जाना हो या दुर्भिक्ष होनेपर अथवा

राजाओंमें युद्ध होनेपर तथा राजा या ब्राह्मणोका

कोप होनेपर कहीं जाना पड़े तो इन अवस्थाओंमें

सम्मुख शुक्रका दोष नहीं होता है । शुक्र यदि

नीच राशिमें या शत्रुराशिमे अथवा वक्रगति या

पराजितः हो तो यात्रा करनेवालोंकी पराजय होती

है । यदि शुक्र अपनी उच्वराशि (मीन) -में हो तो

यात्रां विजव होती है ॥ ६३५--६३८)

अपने जन्मलग्र या जन्मराशिसे अष्टम राशि

या लग्नमें तथा शत्रुकौ राशिसे छठी राशिमे या

लग्रमें अथवा इन सबोंके स्वामी जिस राशिमें हों,

उस लग्न या राशिमें यात्रा करनेवालेकौ मृत्यु होती

है। परंतु यदि जन्मलग्रराशिपति और अष्टम

राशिपतिमें परस्पर मैत्री हो तो उक्त अष्टमराशिजन्य

दोष स्वयं नष्ट हो जाता है॥६३९-६४०॥

द्विस्वभाव लग्न यदि पापग्रहसे युक्त या दृष्ट हो

तो यात्रामें पराजय होती है तथा स्थिर राशि

पापग्रहसे युक्त न हो तो वह यात्रालग्रमें अशुभ

है। यदि स्थिर राशिलग्रमें शुभग्रहका योग या दृष्टि

हो तो शुभ फल होता है॥६४१॥

धनिष्ठा नक्षत्रके उत्तरार्थसी आरम्भ करके

(रेवतौपर्यन्त) पाँच नक्षत्रोंमें गृहार्थ तृण-काष्ठोंका

संक्षिप्त नारदपुराण

संग्रह, दक्षिणकी यात्रा, शय्या (तकिया, पलड्ड

आदि)-का बनाना, घरको छवाना आदि कार्य

नहीं करने चाहिये॥ ६४२॥

यदि यात्रालग्रमें जन्मलग्न, जन्मराशि या इन

दोनोंके स्वामी हों अथवा जन्मलग्न या जन्मराशिसे

३, ६, ११, १० वीं राशि हो तो शत्रुओंका नाश

होता है॥ ६४३ ॥

` यदि शीर्षोदय (मिथुन, सिंह, कन्या, तुला,

कुम्भ) तथा दिग्द्वार (यात्राकौ दिशा)-कौ राशि

लग्नमें हो अथवा किसी भी लग्रमें शुभग्रहके वर्ग

(राशि-होरादि) हों तो यात्रा करनेवाले राजाके

शत्रुओंका नाश होता है॥ ६४४ ॥

शत्रुके जन्मलग्न या जन्मराशिसे अष्टम राशि

या उन दोनोंके स्वामी जिस राशिमें हों वह राशि

यात्रालग्रमें हो तो शत्रुका नाश होता है ॥ ६४५॥

मीन लग्नमें या लग्रगत मीनके नवमांशमें

यात्रा करनेसे मार्ग (रास्ता) टेढ़ा हो जाता है।

(अर्थात्‌ बहुत घूमना पड़ता है।) तथा कुम्भलग्र

और लग्रगत कुम्भका नवमांश भी यात्रामें अत्यन्त

निन्दित है ॥ ६४६॥

जलचर राशि (कर्क, मीन) या जलचर

राशिका नवमांश लग्रमे हो तो नौकाद्रारा नदी-नद

आदि मार्गसे यात्रा शुभ होती है ॥ ६४६१ ॥

( लग्रभावोंकी संज्ञा- ) १- मूर्ति (तन), २-

कोष (धन), ३- धन्वी (पराक्रम, भ्राता), ४-

वाहन (सवारी, माता), ५- मन्त्र (विद्या, संतान),

६- शत्रु (रोग, मामा), ७- मार्ग (यात्रा, पति-

पत्नी), ८- आयु (मृत्यु), ९- मन (अन्तःकरण,

भाग्य), १०- व्यापार (व्यवसाय, पिता), ११-

प्राप्ति (लाभ), १२- अप्राप्ति (व्यय)--ये क्रमसे

लग्न आदि १२ स्थानोंकी संज्ञाएँ है ॥ ६४७ -६४८ ॥

१. जब भङ्गलादि ग्रहोंमें किन्हीं दो ग्रहोँंकी एक राशिमें अंशकला बराबर हो तो दोनोंमें युद्ध समझा जाता

है। उन दोनोंमें जो उत्तर रहता है, वह विजयी तथा दक्षिण रहनेवाला पराजित होता है।

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