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काप्ड-९ सूक्त- ७ २

२४८०. यान्युलूखलमुसलानि ग्रावाण एव ते ॥१५ ॥

जो ओखली-मूसल अतिथि के लिएघान कूटने के काम आते है वे मानो सोमरस निकालने के पत्थर हैं ॥

२४८१. शुरपं पवित्रं तुषा ऋजीषाभिषवणीरापः ॥१६ ॥

अतिथि के लिए जो छाज उपयोग में लाया जाता है, वह यज्ञ में प्रयुक्त होने वाले पवित्रा के समान, धान की

भूसी सोषरस अभिषवण के बाद अवशिष्ट रहने वाले सोम तन्तुओं के समान तथा भोजन के लिए प्रयुक्त होने

वाला जल, यज्ञीय जल के समान है ॥१६ ॥

२४८२. खुग्‌ दरविनक्षणमायवनं द्रोणकलशः कुम्भ्यो वायव्यानि

पात्राणीयपेव कृष्णाजिनम्‌ ॥१७ ॥

कली (भात निकालने का साधन) स्रुवा के सपान पकते समय अन्न को हिलाया जाना यज्ञ की ईक्षण क्रिया

के समान, पकाने आदि के पात्र द्रोणकलश के समान, अन्य पात्र. वायव्य पात्र तथा स्वागत में बिझयी गयी मृण

चर्म कृष्णाजिन तुल्य होते है ॥१७ ॥

[ ७ - अतिथि सत्कार (२) ]

[ऋषि - ब्रह्मा । देवता-अतिथि अथवा विद्या । एन्द्‌- विराट्‌ पुरस्ताद्‌ बृहती, २, १२ साम्नी त्रिष्टपू ३ आसुरी

अनुष्टुप्‌, ४ साप्नौ उष्णिक्‌, ५ साप्नी वृहती, ६ आर्ची अनुष्टप ७ पञ्वपदा विराट्‌ पुरस्ताद्‌ बृहती, ८ आसुरी

गायत्री, ९ साम्नी अनुष्प्‌, १० त्रिषदारची ष्टुप्‌, ११ भुरिक्‌ साम्नी वृहती, १३ त्रिपदार्ची पंक्ति ।

२४८३. यजमानन्नाह्मणं वा एतदतिथिपतिः कुरुते

यदाहार्याणि प्रेक्षत इदं भूया इदारेमिति ॥१ ॥

अतिधि के सत्कार में यह अधिक ६, या पर्याप्त दै, इस प्रकार जो देने योग्य पदार्थों का निरीक्षण करते हैं,

यह प्रक्रिया यज्ञ मँ यजमान द्वारा ब्राह्मण के प्रति किये गये व्यवहार के सपान मान्य है ॥१ ॥

२४८४.यदाह भूय उद्धरेति प्राणमेव तेन वर्षीयांसं कुरुते ॥२ ॥

जो इस प्रकारं कहते हैं कि अधिक परोसकर अतिथि को दें, तो इससे वे अपने प्राण को चिरस्थाई बनाते हैं ।

२४८५. उप हरति हवीष्या सादयति ॥३ ॥

जो उनके पास ले जाते हैं, वे मानों हीन पदार्थ ही ले जाते हैं ॥३ ॥

२४८६. तेषामासन्नानामतिथिरात्मअजुहोति ।४ ॥

उन परोसे गए पदार्थों में से कुछ पदार्थों का अतिधि अपने अन्दर हवन ही करते हैं ॥४ ॥

२४८७. खुचा हस्तेन प्राणे युपे सुक्कारेण वषट्कारेण ॥५ ॥

हाथरूपी सुवा से, प्राणरूपी युप से ओर भोजन ग्रहण करते समय "जुक्‌ - सुक्‌" ऐसे शब्दरूपो वषट्कार

से अपने मे आहूति हौ डालते हैं ॥५ ॥

२४८८. एते वै प्रियाश्चाप्रियाश्चरत्विजः स्वर्गं लोकं गमयन्ति यदतिथयः ॥६ ॥

जो ये अतिधि प्रिय अथवा अप्रिव हैं, वे आतिथ्य यज्ञ के ऋत्विज्‌ यजमान को स्वर्गलोक ले जाते हैं ॥६ ॥

२४८९. स य एवं विद्धान्‌ न ट्विपन्नश्नीयान्न द्विषतोऽन्नमश्नीयान्न

मीपांसितस्य न मीमांसमानस्य ॥७ ॥

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