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खेल-खिलौने हैं, सर्वथा कल्पित और मिथ्या हैं; क्योंकि

ये न होनेपर भी दिखायी पड़ रहे हैं। यही कारण है कि

थे एक क्षण दौखनेपर भी दूसरे क्षण लुप्त हो जाते हैं।

ये गन्धर्वनगर्‌, स्वप्न, जादू और मनोरथकी वस्तुओंके

समान सर्वथा असत्य हैं। जो लोग कर्म-वासनाओंसे

प्रेरित होकर विषयोंक्रा चिन्तन करते रहते हैं; उन्हींका मन

अनेक प्रकारके कमोंको सृष्टि करता है॥ २३-२४ ॥

जोवात्माका यह देह--जो पञ्चभूत, ज्ञनेद्धिय और

कर्मेन्द्रयोंका संघात है--जीवकों विविध प्रकारके क्लेश

और सन्ताप देनेबाली कही जाती है ॥ २५॥ इसलिये तुम

अपने मनको विषयोंमें भटकनेसे रोककर शान्त करो

स्वस्थ करो ओर फिर उस मनके द्वारा अपने वास्तविक

स्वरूपका विचार करो तथा इस द्वैत-भ्रममें नित्यत्वकी

बुद्धि छोड़कर परम शान्तिस्वरूप परमात्मामें स्थित हो

जाओ॥ २६॥

देवर्षि नारदने कहा--राजन्‌ ! तुम एकाग्रचित्तसे

मुझसे यह मन्तोपनिषट्‌ ग्रहण करो । इसे धारण करनेसे

सात रातमें ही तुम्हें भगवान्‌ सर्डर्पणका दर्शन

होगा॥ २७॥ नरेन्द्र ! प्राचीन कालमें भगवान्‌ शङ्कर

आदिने श्रीसड्ूर्पणदेवके ही चरणकमलॉका आश्रय लिया

था। इससे उन्होंने द्वैतभ्रमका परित्याग कर दिया और

उनकी उस महिमाको प्राप्त हुए, जिससे बढ़कर तो कोई

है ही नहीं, समान भी नहीं है। तुम भी बहुत शीघ्र ही

भगवानके उसी परमपदको प्राप्त कर लोगे ॥ २८ ॥

ऋकफऋकओ

सोलहवाँ अध्याय

चित्रकेतुका वैराग्य तथा सङ्कर्षणदेवके दर्शन

श्रीशुकदेवजी कहते हैं--परीक्षित्‌ ! तदनन्तर देवर्षि

नारदने मृत राजकुमारके जीवात्माको शोकाकुल स्वजनेकि

सामने प्रत्यक्ष बुलाकर कहा ॥ १॥

देवर्षि नारदने कहा--जीवात्मन्‌ ! तुम्हारा कल्याण

हो। देखो, तुम्हारे माता-पिता, सुद्दद-सम्बन्धी तुम्हारे

वियोगसे अत्यन्त शोकाकुल हो रहे हैं ॥ २ ॥ इसलिये तुम

अपने शरीरमें आ जाओ .और शेष आयु अपने सगे

सम्बन्धियोके साथ ही रहकर व्यतीत करो । अपने पिताके

दिये हुए भोगोंको भोगो और राजसिंहासनपर बैठो ॥ ३ ॥

जीबात्माने कहा--देवर्षिजी मै अपने कमोकि

अनुसार देवता, मनुष्य, पशु-पक्षी आदि योनियॉमें न जाने

कितने जन्मोंसे भटक रहा हूँ। उनमेंसे ये लोग किस

जन्मे मेरे माता-पिता हुए ? ॥ ४ ॥ विभिन्न जन्मोंमें सभी

एक-दूसरेके धाई-यन्धु, नाती-गोतो, शत्रु-मित्र, मध्यस्थ.

उदासीन और द्वेषी होते रहते हैं॥ ५ ॥ जैसे सुतर्ण आदि

क्रय-विक्रयकी वस्तुएँ, एक व्यापारीसे दूसरेके पास

जाती-आती रहती हैं, वैसे हो जीव भी भिन्न-भिन्न

योनियोमें उत्पन्न होता रहता दै ॥ ६ ॥ इस प्रकार विचार

करनेसे पता लगता है कि मनुष्योंको अपेक्षा अधिक दिन

ठहरनेवाले सुवर्णं आदि पदार्धॉंका सम्बन्धे भी मनुष्योंके

जिसका जिस वस्तुमे सम्बन्ध रहता है, तभौतक उसकी

उस वस्तुसे ममता भी रहती है ॥ ७ ॥ जीव नित्य और

अहङकाररहित दै । वह गभे आकर जवतक जिस शरीरमें

रहता है, तभीतक उस शरीरको अपना समझता है ॥ ८ ॥

यह जीव नित्य, अविनाशी, सूक्ष्म (जन्मादिरहित),

सबका आश्रय और स्वयंप्रकाश है। इसमें स्वरूपतः

जन्म-पृत्यु आदि कुछ भी नहीं हैं। फिर भी यह ईश्वररूप

होनेके कारण अपनी मायाके गुणोंसे हो अपने-आपको

विश्वके रूपे प्रकट कर देता है॥ ९ ॥ इसका न तो कोई

अत्यन्त प्रिय है और न अप्रिय, न अपना और न पराया।

क्योंकि गुण-दोष (हित-अहित) करनेवाले मित्र-शत्रु

आदिकौ भिन्न-भिन्न बुद्धि-वत्तियोंका यह अकेला ही

साक्षी है; वास्तवमे यह अद्वितीय है॥ १० ॥ यह आत्मा

कार्य-कारणका साक्षी और स्वतन्त्र दै । इसलिये यह शरीर

आदिके गुण-दोष अथवा कर्मफलक्मे ग्रहण नहीं करता,

सदा उदासीन भावसे स्थित रहता है॥ ११ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते है-- वह जीवात्मा इस प्रकार

कहकर चला गया । उसके सगे सम्बन्धी उसकी वाते

सुनकर अत्यन्त विस्मित हुए। उनका सेह-वन्धन

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