अध्याय २८ )
इन्द्रपुप्रस्थ दष्टस्य नान्यदस्ति निबारणम्।
शांतबुका
<९
लाकर छट दो। उस दुष्ट इनदरपु्रको रोकनैका कोई दूता
इति श्रुत्वा हरेरवाक्यं नरसिंहस्य धीमतः ॥ २३ | उफाय नहीं ह '॥ २१.२२.५५४
युद्धवाऽऽनीय तु निर्पाल्यं तथा चक्रे यथोदितम्।
सोऽप्यागत्य यथापूर्वं रथेनालक्षितेन तु॥ २४
रथादुत्तीर्य पुष्पाणि विचिन्वंस्तद्धूवि स्थितम्।
निर्माल्यं लङ्घयामास इनद्रसूनुरनिष्टकृत्॥ २५
ततस्तस्य न शक्तिः स्याद्रथारोहणकर्पणि।
उक्तः सारथिना चैव रथस्यारोहणे तव ॥ २६
नरसिंहस्य निर्पाल्यलङ्कने नास्ति योग्यता ।
गच्छामि दिवमेवाहँ त्वं भूम्यां वस माऽऽरुह ॥ २७
तेनैवमुक्तो मतिमांस्तमाह हरिनन्दन:।
पापस्य नोदनं त्वत्र कर्मणा येन भे भवेत् ॥ २८
तदुक्त्या गच्छ नाकं त्वं कर्मास्मान् सारथे दुतम्।
सारपिस्याच
रामसत्रे कुरुक्षेत्रे द्वादशाब्दे तु नित्यश:॥ २९
द्विजोच्छिष्टापनयन॑ कृत्वा त्वं शुद्धिमेष्यसि।
इत्युक्त्वासौ गतः स्वर्ग सारथिदेवसेवितम्॥ ३०
इन्द्रसूनु: कुरुक्षेत्र प्राप्त: सारस्वतं तटम्।
रामसत्रे तथा कुर्यादद्विजोच्छिप्टस्थ मार्जनम्॥ ३१
पूर्णे द्वादशमे वषं तमूचुः शङ्किता द्विजा:।
कस्त्वं बहि महाभाग नित्यमुच्छिष्टमार्जकः ॥ ३२
न भुझसे च नः सत्रे शङ्का नो महती भवेत्।
इत्युक्तः कथयित्वा तु यथावृत्तमनुक्रमात् ॥ ३३
जगाम त्रिदिवं शिघ्रं रथेन तनयो हरेः।
तस्मात् त्वमपि भूपाल ब्राह्मणोच्छिप्टपादरात् ॥ ३४
मार्जनं कुरु रापस्य सत्रे द्वादशवार्षिके ।
ब्राह्मणेभ्यः परं नास्ति सर्वपापहरं परम्॥ ३५
एवं कृते देकदन्तस्यन्दनारोहणणौ गतिः।
भविष्यति पहीपाल प्रायश्चित्ते कृते तव ॥ ३६
अत ऊर्ध्वं च तिर्पाल्यं मा लङ्घय महामते।
नरसिंहस्य देवस्य तथान्येषां दिवौकसाम् ॥ ३७
"बुद्धिमान् भगवान् वृसिंहका यह यचन सुनकर माली
जाग उठा और उसने निर्माल्य लाकर उनके कथनानुसार
वहाँ कटि दिया। जयन्ते भी पहलेके ही समान अलक्षित
रघसे आया और उससे उतरकर फूल तोड़ने लगा। उसी
समय अपना अनिष्ट करनेजाला इन्द्रपुत्र वहाँ भूमिपर पढ़े
हुए निर्माल्यकों लाँघ गया। इससे उसपें रथपर चढ़नेकी
शक्ति नहीं रह गयी। तब सारथिने उससे कहा-- नृसिंहका
निर्माल्य लॉध जानेके कारण अब तुममें इस रथपर
चद्नेकौ योग्यता कहीं रह गयौ है। मैं तो स्वर्गलोकको
लौटता हूँ, किंतु तुम यहाँ भूतलपर ही रहो; रथपर न
चदु '॥ २३०--२७॥
*सारधिके इस प्रकार कहनेपर मतिमात् इद्नकुमारते
उससे कहा--' सारथे! जिस कर्मसे यहाँ मेरे पापको निवारण
हो, उसे बताकर तुम ज्ौश्र स्वर्गलोकको जाओ ' ॥ २८१, ॥
सारथि योला--' कुरुश्षेत्रमें परशुरामजीका एक यज्ञ
हो रहा है, जो बारह वर्पो समा होनेबाला है। उसमें
जाकर तुम प्रतिदिन ब्राह्मणोंका जूठा साफ़ करो; इससे
तुम्हारी शुद्धि होगी।' यों कहकर सारधि देवसेवित
स्वर्गलोकको चला गया ॥ २९-३० ॥
“इधर इन्द्रपुश्न जयन्त कुरुक्षेत्रमें सरस्थतीके तटपर
आया और परशुरामजीके यज्ञमें ब्राह्मणॉकी जूठन साक
करने लगा। जब आरहयाँ वर्ष पूर्ण हुआ, तब ब्राह्मणोंने
शङ्कित होकर उससे पूछा-'महाभाग! तुम कौन हो?
जो नित्य जूठन साफ करते हुए भो हमारे यज्ञमें भोजन
नहीं करते। इससे हमारे मनमें महान् संदेह हो रहा है।'
उनके इस प्रकार पूछनेपर इन्द्रकुमार क्रमशः अपना सारा
चृत्तान ठौक- ठोक बताकर तुरंत रवसे स्वर्गलोको
चला मया ॥ ३१-२३५,॥
“इसलिये, हे भूपाल! तुम भी परशुरामजीके
दशवार्षिके यज्ञ्में आदरपूर्वक आरह्यणोंकों जूठन साफ
करो ब्राह्मणोंसे बढ़कर दूसरा कोई ऐसा नहीं है, जो
पापोंका अपहरण कर सके। महीपाल | इस प्रकार प्रायश्चित्त
कर लेनेपर तुम्हें देवताओंके दिये हुए रथपर चद़तेकी
शक्ति प्रात हो जायगी! महामते! आजसे तुम भी
श्रौनृसिंहदेवका तथा अन्य देवताओंके भी निर्माल्यका
जत्लंगत ते करना'॥ ३४००-३७ ॥