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॥ १)

अथवा दस दिन, पंद्रह दिन या एक मासतक

निराहार रहता दै, वह मनुष्य भगवान्‌ विष्णुके

परम पदको प्राप्त कर लेता है। जो मनुष्य

कार्तिके एकभुक्तं (केवल दिनमें एक समय

भोजन) या नक्तत्रत (केवल रातमें एक बार

भोजन) अथवा अयाचित्तव्रत (बिना माँगे स्वतः

प्राप्त हुए अन्नका दिन या रातमें केवल एक बार

भोजन) करते हुए भगवानूकौ आराधना करते हैं,

उन्हे सातां द्वीपॉंसहित यह पृथ्वी प्राप्त होती है।

विशेषतः पुष्करतीर्थ, द्वारकापुरी तथा सूकर क्षेत्रमें

यह कार्तिक मास व्रत, दान और भगवत्पूजन

आदि करनेसे भक्ति देनेवाला बताया गया है ।

कर्तिके एकादशीका दिन तथा भीष्पपञ्चक अधिक

पुण्यमय माना गया है । मनुष्य कितने ही पापोंसे

भरा हुआ क्यो न हो, यदि वह रात्रि जागरणपूर्वक

प्रबोधिनी एकादशीका त्रत करे तो फिर कभी

माताके गभमिं नहीं आता। वरारोहे! उस दिन जो

वाराहमण्डलका दर्शन करता है, वह बिना सांख्ययोगके

परमपदको प्राप्त होता है। शुभे! कार्तिके शुकरमण्डल

या कोकवाराहका दर्शन करके मनुष्य फिर किसीका

पुत्र नहीं होता। उसके दर्शनसे मनुष्योंका आध्यात्मिक

आदि तीनों प्रकारके पापोंसे छुटकारा हो जाता है।

ब्रह्मकुमारी ! उक्त मण्डल, श्रीधर तथा कुब्जकका

दर्शन करके भी मनुष्य पापमुक्त होते हैं। कार्तिके

तैल छोड़ दे। कार्तिकमें मधु त्याग दे। कार्तिके

स्त्रीसेवनका भी त्याग कर दे। देवि! इन सबके

त्यागद्वारा तत्काल ही वर्षभरके पापसे छुटकारा

मिल जाता है। जो थोड़ा भी व्रत करनेवाला है,

उसके लिये कार्तिक मास सब पापोंका नाशक

होता है। कार्तिकमें ली हुई दीक्षा मनुष्योंके

जन्मरूपी बन्धनका नाश करनेवाली है। अतः पूरा

प्रयत्न करके कार्तिकमें दीक्षा ग्रहण करनी चाहिये ।

जो तीर्थमें कार्तिक -पूर्णिमाका व्रत करता है या

संक्षिप्त नारदपुराण

कार्तिकके शुक्लपक्षकी एकादशीको त्रत करके

मनुष्य यदि सुन्दर कलशोंका दान करता है तो वह

भगवान्‌ विष्णुके धाममें जाता है। सालभरतक

चलनेवाले ब्रतोंकी समाप्ति कार्तिके होती है ।

अतः मोहिनी! मैं कार्तिक मासमें समस्त पापोंके

नाश तथा तुम्हारी प्रीतिकी वृद्धिके लिये ब्रत-

सेवन करूँगा।

मोहिनीने कहा--पृथ्वीपते ! अब चातुर्मास्यकी

विधि और उद्यापनका वर्णन कौजिये, जिससे

सब ब्रतोंकी पूर्णता होती है। उद्यापनसे ब्रतकी

न्यूनता दूर होती है और वह पुण्यफलका साधक

होता है।

राजा बोले-प्रिये! चातुर्मास्यमें नक्तव्रत

करनेवाला पुरुष ब्राह्मणको षड्रस भोजन करावे।

अयाचित-व्रतमें सुवर्णसहित वृषभ दान करे। जो

प्रतिदिन ओंवलेके फलसे स्नान करता है, वह

मनुष्य दही और खीर दान करे । सुभ्रु! यदि फल

न खानेका नियम ले तो उस अवस्थामें फलदान

करे । तेलका त्याग करनेपर घीदान करे और घीका

त्याग करनेपर दूधका दान करे। यदि धान्यके

त्यागका नियम लिया हो तो उस अवस्थामें

अगहनीके चावल या दूसरे किसी धान्यका दान

करे । भूमिशयनका नियम लेनेपर गदया, रजाई और

तकियासहित शय्यादान करे। पत्तेमें भोजनका

नियम लेनेवाला मनुष्य घृतसहित पात्रदान करे ।

मौनन्रती पुरुष घण्टा, तिल और सुवर्णका दान

करे। ब्रतकी पूर्तिके लिये ब्राह्मण पत्ति-पन्नीको

भोजन करावे । दोनोंके लिये उपभोगसामग्री तथा

दक्षिणासहित शय्यादान करे। प्रातःस्नानका नियम

लेनेपर अश्वदान करे और स्नेहरहिते (चिना

तेलके) भोजनका नियम लेनेपर घी ओर सत्तू दान

करे। नख और केश न कटाने-धारण करनेका

नियम लेनेपर दर्पण दान करे। पादत्राण (जूता,

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