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यों कहना चाहिये। इन मूर्तियोंके पूजनका मन्त्र

इस प्रकार है-' ॐ आदित्याय नम:। एं रवये

नमः। ॐ भानवे नमः। डं भास्कराय नमः। अं

सूर्याय नमः।' अग्निकोण, तैर्हत्यकोण, ईशान-

कोण और वायव्यकोण --इन चार कोणोंमें तथा

मध्यमे हृदादि पाँच अङ्गकी उनके नाम-मन्त्रोंसे

पूजा करनी चाहिये। वे कर्णिकाके भीतर ही उक्त

दिशाओं पूजनीय हैं। अस्त्रकी पूजा अपने

सामनेकी दिशामें करनी चाहिये । पूर्वादि दिशाओंमें

क्रमश: चन्द्रमा, बुध, गुरु और शुक्र पूजनीय हैं

तथा आग्रेय आदि कोणोंमें मङ्गल, शनैश्चर, राहु

और केतुकी पूजा करनी चाहिये ॥ २०--२५ \॥

पृश्निपर्णी, हींग, बच, चक्र (पित्तपापड़ा),

शिरीष, लहसुन और आमय--इन ओषधियोंको

बकरेके मूत्रमें पीसकर अञ्जन और नस्य तैयार कर

ले। उस अञ्जन और नस्यके रूपमें उक्त औषधोंका

उपयोग किया जाय तो वे ग्रहबाधाका निवारण

करनेवाले होते हैं। पाठा, पथ्या (ह), वचा, शिग्र

(सहिजन), सिन्धु (सेधा नमक), व्योष (त्रिकटु)-

इन ओषधोको पृथक्‌ - पृथक्‌ एक-एक पल लेकर

उन्हें बकरीके एक आढ़क दूधमें पका ले और

उस दृधसे घी निकाल ले। वह घी समस्त ग्रह-

बाधाओंको हर लेता है। वृश्चिकाली (बिच्छू-

घास), फला, कूट, सभी तरहके नमक तथा

शर््ंक--इनको जलमें पका ले! उस जलका

अपस्मार रोग (मिरगी ) -के विनाशके लिये उपयोग

करे । विदारीकंद, कुश. काश तथा ईखके क्राथसे

सिद्ध किया हुआ दूध रोगीको पिलाये। जेठी-

मधु और भथएके एक दोन रसमें घीको पकाकर

दे। अथवा पञ्चगव्य घीका उस रोगमें प्रयोग करे ।

अब च्वर-निवारक उपाय सुनो- ॥ २६--३० ॥

च्वर-गायत्री

ॐ भस्मास्त्राय विग्रहे । एकर्द्टाय धीमहि ॥

तन्नो ज्वरः प्रचोदयात्‌॥ ३९१ ॥

(इस मन्त्रके जपसे ज्वर दूर होता है ।) श्वास

(दमा)-का रोगी कृष्णोषण (काली मिर्च),

हल्दी, रासन, द्राक्षा ओर तिलका तैल एवं गुड़का

आस्वादन करें। अथवा वह रोगी जेठीमधु

(मुलहठी) और घीके साथ भार्गीका सेवन करे

या पाठा, तिक्ता (कुटकी), कर्णा (पिप्पली)

तथा भार्गीको मधुके साथ चाटे। धात्री (आँवला),

विश्वा (सोंठ), सिता (मिश्री), कृष्णा (पिप्पली),

मुस्ता (नागरमोथा), खजूर मागधी (खजूर और

पीपल*) तथा पीवरा (शतावर)-ये ओषध

हिक्का (हिचकी) दूर करनेवाले हैं। उपर्युक्त

तीनों योग मधुके साथ लेने चाहिये। कामल-

रोगसे ग्रस्त मनुष्यको जीरा, माण्डूकपर्णी, हल्दी

और आँवलेका रस पिलाना चाहिये। त्रिकटु,

पद्मकाष्ट, त्रिफला, वायविडङ्ग, देवदारु तथा

रास्ना--इन सबको सममात्राे लेकर चूर्ण बना ले

और खाँड मिलाकर उसे खाये। इस औषधसे

अवश्य ही खाँसी दूर हो जाती है ॥ ३२--३५॥

इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणे 'ग्रहवाधाहारी मन्त्र तथा ओौवधका कथत” नामक

तीन साँवाँ अध्याय पर हुआ॥ ३०० ॥

~

तीन सौ एकवाँ अध्याय

सिद्धि-गणपति आदि मन्त्र तथा सूर्यदेवकी आराधना

अग्निदेव कहते हैं-- वसिष्ठ । शाङ्गी (गकार), | विष्णु (ईकार) और पावक (रकार) हो तो इन

दण्डी (अनुस्वारयुक्त) हो, उसके साथ पद्येश- | चार अक्षरोके मेलसे पिष्डीभूत बीज (ग्रीं) प्रकर

* यहाँ पिष्पलीका नाम दुबारा आया है । जो द्रव्य दो बार आया हो, उसका दो भाग लिया जाता है।

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