६६ |] [ मत्स्य पुराण
(नेती मे) वेष्टित करो । दानवो के इन्द्र स्वामी बलि को थोड़े समय
तक निवेशित करो । पाताल में अविनाशी भगवान् विष्णु जो कर्मरूप
वाले हैं उनकी प्रार्थना करो । शैलराज मन्दराचल की भी प्रार्थना करो
और फिर मन्थन का कार्य प्रवृत्त कर दो । इस बचन को देवों ने श्रवण
किया था और फिर वे सब दानवो के मन्दिरमे गये थे । हे बले ! अब
आप विरोध मत करो हम सत्र आपके भुत्य हैं अब तो सब मिलकर
अमृत की उपलब्धि का प्रयोग करो और मन्थन कायं का नेत्र शेषनाग
को बना डालो | हे देत्य ! आपके द्वारा इस अमृत मन््धन में अमृत के
समुत्पादित होने पर, सव अमर हो जायेंगे और यह आपके ही प्रसाद
से सुसम्पन्न होगा---इसमें तनिक भी संशय नहीं है इस तरह से उन
देवों के द्वारा कहे जाने वाला यह दानत्र बहुत परितुष्ट हो गया था ।
हे देवगण ! आप लोग जसा भी कहते हैं हम भी सब बसा ही मुझसे
भी इस समय में करना ही है । यहाँ पर मैं अकेला ही इस क्षीर
वारिधि को मन्थन करने सें समर्थ हुं और अव मैं आपको दिव्य अमृ-
तत्व के लिए लाकर दे दगा । सुदूर से आश्रय को प्राप्त होने वाले
वेरियोंका जो भक्तिभावे से पूजन नहीं किया है वह वहाँ पर मरकर
विनिष्ट हो जाया करता है | अब मैं स्नेह में समास्थित होकर आप
सब लोगों का पालन करूंगा ।१५-२२।
एबमुवत्वा स देत्येन्द्रों देवें: सह ययौ तदा ।
मन्दरं प्रार्थथामास सहायत्वे धराधरम् ।२३
सखा भवत्वमस्माकमधुनाऽमृतमन्थने ।
सुरासुराणां सर्वेषां महत्कायमिदं जगत् । २४
तथेति मन्दरः प्राहु यद्याधारो भवेन्मम ।
यत्रे स्थित्व" श्रमिष्यामिमधिष्येवरुणालयम् ।२५
कल्प्यतां नेत्रकार्ये य: शक्तः स्याद्रष्टने मम ।
ततस्तु निगेतौ देवौ कममेशेषौ महावलौ ।२६