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८ अथर्वविद्‌ संहिता घाग-९

२३६९. यावतीर्भड़ा जत्वः कुरूरवो यावतीर्वघा वृक्षसप्यों बभूवुः ।

ततस्त्वमसि ज्यायान्‌ विश्वहा महांस्तस्मै ते काम नम इत्‌ कृणोमि ॥२२॥

जहाँ तक भङ्ग मविखियाँ (कीट), नीलगायें (पृथ्वीवर). काटने वाले डेमू ओर पेड़ पर चढ़ने वाले पशु तथा

रेंगने वाले जीव होते हैं, हे काम ! आप उनसे भी कहीं महान्‌ और श्रेष्ठ दै, अतएव आपके प्रति हमारा नमन है ॥२२

२३७०. ज्यायान्‌ निमिषतोऽसि तिष्ठतो ज्यायान्त्समुद्रादसि काम मन्यो ।

ततस्त्वमसि ज्यायान्‌ विश्वहा महांस्तस्मै ते काम नम इत्‌ कृणोमि ॥२३ ॥

हे संकल्प शक्तिरूप काम और मन्यु ! आप आँख झपकने वालों, स्थित पदार्थों और जल के अथाह भण्डार

रूप समुद्र से भी बढ़कर महान्‌ और उत्कृष्ट है, आपके प्रति हमारा नमन है ॥२३ ॥

२३७१. न वै वातश्चन काममाप्नोति नाग्निः सूर्यो नोत चन्द्रमा: ।

ततस्त्वमसि ज्यायान्‌ विश्वहा महांस्तस्मै ते काम नम इत्‌ कृणोमि ॥२४॥

वायु, अग्नि, सूर्य और चन्द्रमा इनमें से कोई सत्संकल्परूप काम कौ तुलना के योग्य नहीं । हे काप ! आप

उनसे भी महान्‌ और उत्कृष्ट हैं, ऐसे आपके प्रति हमारा प्रणाम है ॥२४ ॥

२३७२. यास्ते शिवास्तन्वः काम भद्रा याभिः सत्यं भवति यद्‌ वृणीषे ।

ताभिष्टवमस्माँ अभिसंविशस्वान्यत्र पापीरप वेशया धियः ॥२५ ॥

हे संकल्प बल के प्रतीक काम ! आपके जो कल्याणकारी और हितकारक शरीर हैं, जिनके द्वारा आप जिनको

स्वीकार (वरण) करते हैं, वे सत्यरूप होते हैं । उन उत्कृष्टताओं के साथ आप हम सभी में प्रवेश करें और अपनी

दर्भावग्रस्त विचारणाओं को हमसे भित्र अवांछनीय तत्त्वों की ओर प्रेरित करें ॥२५ ॥

[३ - शाला सूक्त ]

[ ऋषि- भृग्बड्रिरा देवता-शाला । छन्द- अनुष्टुप्‌ ६ पथ्यापंक्ति, ७ परोष्णिक्‌, १५ त्यवसाना

पञ्वपदातिशक्वरी, १७ प्रस्तार पंक्ति, २१ आस्तार पंक्ति, २५, ३१ एकावसाना त्रिपदा प्राजापत्या बृहती, २६

एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप्‌, २७-३० एकावसाना त्रिपदा प्रतिष्ठा गायत्री ।]

२३७३. उपमितां प्रतिमितामथो परिपितामुत ।

शालाया विश्चवाराया नद्धानि वि चृतामसि ।९ ॥

सुरचित, प्रत्येक ओर से नापे गए, उपयुक्त अनुपात वाले गृह के चारों ओर बंधे बन्धनो को हम खोलते हैं ॥१ ॥

२३७४. यत्‌ ते नद्धं विश्ववारे पाशोग्रन्थिश्च यः कृतः ।

बृहस्पतिरिवाहं बलं वाचा वि स्रंसयामि तत्‌ ॥२ ॥

सम्पूर्ण श्रेष्ठता से युक्त हे शाले ! जो आपमें बन्धन लगा हुआ है और आपके दरवाजे पर जो पाश वधा

है, उसे हम (उपयोग के लिए) खोलते हैं, जैसे बृहस्पतिदेव वाणी की शक्ति को खोल देते हैं ॥२ ॥

२३७५. आ ययाम सं बवरह ग्रन्थीश्चकार ते दृढान्‌ ।

परूषि विद्वाञ्छस्तेवेन्रेण वि चृतामसि ॥३॥

जानकार शिल्पी ने आपको ठीक करके ऊँचा बनाया और आपमें गाँठों ( जोड़ों ) को सुदृढ़ नाया है । ज्ञानी

शिल्पी द्वारा जोड़ों ( गाँठों को काटने के समान हम इनद्रदेव की सामर्थ्य से उन गाँठों को खोलते हैं ॥३ ॥

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