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संसर्गजनित दोषकी शुद्धिके लिये, उस पतितके

लिये विहित प्रायश्चित्त करें। पतितके सपिण्ड

और बान्धर्वोको एक साथ निन्दित दिनमें,

संध्याके समय, जाति- भाई, ऋत्विक्‌ और गुरुजनोंके

निकट, पतित पुरुषकी जीवितावस्थामें ही उसकी

उदक-क्रिया करनी चाहिये। तदनन्तर जलसे भरे

हुए घड़ेको दासीद्वारा लातसे फेंकवा दे और

पतितके सपिण्ड एवं बान्धव एक दिन-रात

अशौच मानें। उसके बाद वे पतितके साथ

सम्भाषण न करें और धनमें उसे ज्वेष्टांश भी न

दें। पतितका छोटा भाई गुणोंमें श्रेष्ठ होनेके कारण

ज्येन्‍्रांशका अधिकारी होता है। यदि पतित बादमें

प्रायश्चित्त कर ले, तो उसके सपिण्ड और बान्धव

उसके साथ पवित्र जलाशयमें स्नान करके जलसे

भरे हुए नवीन कुम्भको जलमें फेंके। पतित

स्त्रियोंके सम्बन्धर्मे भी यही कार्यं करे; परंतु

उसको अन्न, वस्त्र ओर घरके समीप रहनेका

स्थान देना चाहिये॥ १-७६॥

जिन ब्राह्मणोंकों समयपर विधिके अनुसार

गायत्रीका उपदेश प्राप्त नहीं हुआ है, उनसे तीन

प्राजापत्य कराकर उनका विधिवत्‌ उपनयन-

संस्कार करावे । निषिद्ध कर्मोका आचरण करनेसे

जिन ब्राह्मणोंका परित्याग कर दिया गया हो,

उनके लिये भी इसी प्रायश्चित्तका उपदेश करे ।

ब्राह्मण संयतचित्त होकर तीन सहस्र गायत्रीका

जप करके गोशालामें एक मासतक दूध पीकर

निन्दित प्रतिग्रहके पापसे छूट जाता है। संस्कारहीन

मनुष्योंका यज्ञ कराकर, गुरुजनोंके सिवा दूसरोंका

अन्त्येष्टिकर्म, अभिचारकर्म अथवा अहीन यज्ञ

कराकर ब्राह्मण तीन प्राजापत्य-व्रत करनेपर शुद्ध

होता दै । जो द्विज शरणागतका परित्याग करता है

और अनधिकारौको वेदका उपदेश करता है, वह

एक वर्षतक नियमित आहार करके उस पापसे

मुक्त होता है॥ ८--१२॥

कुत्ता, सियार, गर्दभ, बिल्ली, नेवला, मनुष्य,

घोड़ा, ऊट और सूअरके द्वारा काटे जानेपर

प्राणायाम करनेसे शुद्धि होती है। स्नातकके

ब्रतका लोप और नित्यकर्मका उल्लड्बनन होनेपर

निराहार रहना चाहिये। यदि ब्राह्मणके लिये ' हुं

कार और अपनेसे श्रेष्ठके लिये 'तूं' का प्रयोग हो

जाय, तो स्नान करके दिनके शेष भागमें उपवास

रखे ओर अभिवादन करके उन्हें प्रसन्न करे।

ब्राह्मणपर प्रहार करनेके लिये डंडा उठानेपर

“प्राजापत्य -त्रत' करें। यदि डंडेसे प्रहार कर

दिया हो तो “अतिकृच्छ” और यदि प्रहारसे

ब्राह्मणके खून निकल आया हो तो ' कृच्छर" एवं

*अतिकुच्छुब्र' करें। जिसके घरमें अनजानमें

चाण्डाल आकर टिक गया हो तो भलीभौति जाननेपर

यथासमय उसका प्रायश्चित्त करे। ` चान्द्रायण"

अथवा * पराकत्रत' करनेसे द्विजोंकी शुद्धि होती

है। शूद्रोंकी शुद्धि ' प्राजापत्य-व्रत ' से हो जाती है,

शेष कर्म उन्हें ट्विजोंकी भाँति कले चाहिये। घरमें

जो गुड़, कुसुम्भ, लवण एवं धान्य आदि पदार्थ

हों, उन्हें द्वारपर एकत्रित करके अग्निदेवको

समर्पित करे। मिट्टीके पात्रोंका त्याग कर देना

चाहिये। शेष द्रव्योंकी शास्त्रीय विधिके अनुसार

द्रव्यशुद्धि विहित है ॥ १३--१९ ३ ॥

चाण्डालके स्पर्शसे दूषित एक कूृएँका जल

पीनेवाले जो ब्राह्मण हैं, वे उपवास अथवा

पञ्जगव्यके पानसे शुद्ध हो जाते हैं। जो द्विज

इच्छानुसार चाण्डालका स्पर्श करके भोजन कर

लेता है, उसे " चाद्दरायण' अथवा “तप्तकृच्छु'

करना चाहिये। चाण्डाल आदि घृणित जातियोंके

स्पर्शसे जिनके पात्र अपवित्र हो गये हैं, वे द्विज

(उन पात्रोमे भोजन एवं पान करके) 'घड्रात्रब्रत'

करनेसे शुद्ध होते है । अन्त्यजका उच्छिष्टं खाकर

द्विज 'चान्द्रायणब्रत' करे ओर शुद्र 'त्रिरात्र-व्रत'

करे। जो द्विज चाण्डालोके कूएँ या पात्नका जल

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