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इतना कहकर भगवान् शंकर वहीं अदृश्य हो गये। वहीँ
भक्तियोग से मुनि ने रुद्रदेव को आराधना करते रहते थे।
यह परम पवित्र अतुलनीय तोर्थ ब्रह्म्॑षियों के द्वा सेवित है।
इसे विद्वान् ब्राह्मण सेवन करके समस्त पातकों से मुक्त हो
जाता है।
इति श्रोकूर्षपुराणे उत्तरा्डे पङ्रिशोऽष्यायः॥ ३५॥
षटत्रिशोऽध्यायः
(तोर्थ-प्रकरण)
सूत उवाच
अन्यत्पवित्र विपुलं तीर्थ त्रैलोक्यविश्वुतप्।
रुद्रकोटिरिति ख्यातं रुद्रस्थ परपेष्ठिनः॥ १॥
सूतजी बोले- त्रैलोक्य में प्रसिद्ध एक अन्य पवित्र
विशाल तीर्थ है। परमेष्ठी सदर का होने से यह रुद्रकोटि नाम
से विख्यात है।
पुरा पुण्यतमे काले देवदर्शनतत्पराः।
कोटिब्रह्मर्षयो दात्तास्त॑ देशमगमन्यरम्॥ २॥
अहं द्क्ष्यासि पिरिश पर्वमेव पिनाकिनम्।
अन्योऽन्यं धक्तियुक्तानां विवादोऽभू्मह्यन् किल॥ ३॥
किसौ विशेष पुण्यतम पुरातनं काल में कभी करोड़ों
जितेच्द्रिय महर्षिगण, महादेव के दर्शन को इच्छा से उस
तोर्थ में गये थे। वहां जाने पर भक्तियुक्तं हुए उन महर्षियों
में, “मैं पहले पिनाकी गिरोश का दर्शन करूंगा" इस प्रकार
परस्पर महान् विवाद हो उठा।
तेषा भक्ति तदा दृषा गिरिशों योगिनां गुरु:।
कोटिरूपोऽभववुदो स्द्कोटिस्ततोऽधवत्॥। ४॥
तेव उनकी भक्ति देखकर योगियों के गुरू भगवान्
महादेव ने करोड़ों रूप धारण कर लिए। तब से यह तीं
रुद्रकोटि के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
ते स्म सर्वे महादेवं हरं गिरिगुह्यशवम्।
अपश्यन् पार्बतीनावं हृष्टपष्टियोऽभवन्॥। ५॥
पर्वत को गुफा में रहने वाले, पावंतोपति शंकर के (एक
साध) दर्शन किये अतः वे सभौ ऋषिगण अत्यन्त परिपक्व
बुद्धि वाले हो गये।
अनाछनतै महादेवं पूर्वमेवाहमीश्चरपा
कूर्ममहापुराणम्
दृष्टवानिति भक्त्या ते रुद्नन्यस्तथियो$भवन्॥ ६॥
आदि और अन्त रहित ईश्वर, महादेव को परनि हौ पहले
देखा, यह सोचकर, ब्रह्मर्षि लोग भक्ति के कारण रुद्रमय
बुद्धिवाले हो गये।
अवान्तरे विमलप्पश्यक्ति स्म महत्तरम्)
स्योतिस्तत्रैव ते सर्वेऽभिलप्तः पराम्पदम्॥७॥
यतः स देवोऽध्युपितस्ती् पुष्यं सुभम्।
दृष्टा स्दरान्यपभ्य््यं स्द्रसामीष्यमाणुयु:॥ ८॥
तत्पश्ात् उन्होंने आकाश में एक विमल महान् ज्योति को
देखा और उसी में लीन होकर हौ, वे सब परम पद को प्राप्त
हो गये। यही कारण है कि वे रुद्रदेव वहां रहते थे, इसलिए
यह तीर्थ पुण्यमय और शुभ है। वहां रुद्र का दर्शन तथा
पूजन करके मनुष्य रुदर का सामोष्य प्राप्त कर लेता है।
अन्यच तीर्वप्रवर॑ नाप्ता मधुवन॑ शुपम्।
तत्र गत्या नियमवानिद्यस्पार्डासन लभेतू॥९॥
अथान्या पदानगरी देश: पुण्यतम: शुभ:।
तत्र गत्वा पितृग्यूज्य कुलानां तारवेच्छतम्॥ १०॥
एक दूसरा मधुवन नामक श्रेष्ठ पवित्र तीर्थं है। वहां
जाकर तियमतिष्ठ होकर रहने वाला इन्द्र के अर्धासन को
प्राप्त कर लेता है। इसके अतिरिक्त पदयनगरो नामक शुभ और
पुण्यतम प्रदेश है। वहाँ जाकर पित्रो कौ पूजा करने से
अपने वंश के सौ पित्र का उद्धार होता है।
कालञ्जरं पहातोर्थ स्द्रलोके पहेश्वर:।
कालज्ञं भजन्देवं तत्र भक्तप्रियो हर:॥ १शा
चेतो नाप शिवे भक्तो राजर्षिप्रवर: पुरा।
तदाशीस्तन्नमस्कारै: पूजवामास झूलिनम्॥ १२॥
संस्वाप्य विधिना स्रं भक्तियोगपुर:सर:।
जजाप रुद्रमनिशं ततर संन्यस्तमानसः॥ १३॥
रद्रलोक में कालंजर नामक एक महातीर्थ है। जहां
भक्तप्रिय महादेव महेश्वर कालंजर नामक रुद्रदेव का भजन
करते हैं। प्राचीन काल मेँ श्वेत नामक एक शिवभक्त राजर्षि
यहाँ शिवजी के आशीर्वाद प्राकर नपस्कारादि से
त्रिशूलधारी शिव का पूजन किया करता था। उसने वहां
भक्तियोगपूर्वक विधिवत् शिवलिङ्ग स्थापित किया और फिर
उसी शिव में चित लगाकर निरन्तर रुद्र मर का जप किया।
सितं कार्ष्णाजिन॑ दीप्तं शूलमादाय भीषणम्।
तेतुमभ्यागतो देश स राजा यत्र तिष्ठति॥। १४॥