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+जीवके जन्यका वृत्तान्त त्था महारौरव आदि नरकोका यर्णन*

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नारकी जीव घोर दुःख्दावी तरक्रमिं गिराये

जाते हैं। स्वर्गमें भी ऐसा दुःख होता है, जिसकी

कहाँ हुलना नहीं है। स्थ्वर्गमें पहुँचनेके बादसे ही

मनमें इस जातकी चिन्ता बनी रहतौ हैं कि

पुण्य-क्षय होनेपर हमें यहाँसे नोचे गिरना पड़ेगा।

साथ ही नरके पड़े हुए जीबॉकों देखकर महान्‌

दुः होता है कि कधी हें भी ऐसी हो दुर्गति

भोगनी पड़ेगी। इस बातसे दिन-रात अशान्ति तनी

रहती है। गर्भवासमें तो भारी दुःख होता हो है,

रिस जन्म लेते सपय भी थौड़ा क्लेश नहों

होता। जन्म लेनेके पश्चात्‌ बाल्यावस्था और

दृद्धाव्रस्थामें भी दुःख-ही-दुःख भोगना पड़ता

है। जवानी भी काम, क्रोध और ईप्यॉमें वधे

रहदेके कारण अत्यन्त दुस्सह ऋ उठाना पडता

है। बुढ़ापेमें तों अधिकांश दुःख हो होता है।

मरतेसें भी सबसे अधिक दुःख है। यमदूतोंद्वारा

चसौटकर ले जाये जाने और नरक्रमे पिराये

जागेपर जो महान्‌ क्लेश होता है, उसको चचा हो

चुकी है। यसि लौटनेपर फिर गर्भत्नास, जन्म,

मृत्यु तथा नरकका क्रम चालू हो जाता है। इस

तरह जोक प्राकृत बन्धतोंमें बैभकर घटीयन्त्रको

भाँति इस संसारचक्रपें खूमते रहते हैं।

पिताजी! मैंने आपसे रौरव नामक प्रथम

नरकक़्ा वर्णद किया है । अद महारौरलका तर्णन

पुनिये--इसका विस्तार सव ओरसे बारह हजार

योजन है। वहाँकी भमि तॉबेकों है, जिसके नीचे

आग धथक्तती रहतों है। उसकी आँचसे तपकर

अह सारी ताप्रमयों भूमि चमकतो हुई बिंजलीके

मपान ज्योतिर्मयी दिखायो देती है। उसकी ओर

देखना और स्पर्श आदि करना अत्यन्त भयङ्कर

है। यमराजके दूत हाथ और पैर छाँश्रकर पापी

जनको उसके भीतर डाल देते हैं और वह

लोटत हुआ आगे बढ़ता है। मर्भमें कौवे, अगुले,

विन्द्‌. पच्छर और गिद्ध उसे जल्टी-जल्दी नोच

होकर छटपटात्ता है और बारंबार “अरे चाप! अरे

मैया! हाथ श्रैया! हा तात!' आदिक रट लगाता

हुआ करूणा कऋन्‍्दन करता हैं, किन्तु उसे तनिक

भी शान्ति नहीं मिलती। इस प्रकार उसमें पड़े हुए

के नत ~:

जोव, जिन्होंने दूषितं बुद्धिके कारण पाप किये हैं,

दस करोड वर्धं बीतनेपर उससे छुटकारा पाते हैं।

इसके सिवा तम नामक एक दूसरा नरक है, जहाँ

स्त्रभावसे हो कड़ाकेकी सर्दी पड़तो है। ठसका

विस्तार भी पहारौरवके हौ बराबर है, किन्तु

बह घोर अगधकारसे आच्छादित रहता है। वहाँ

पापौ मनुष्य सर्दोंसि कष्ट पाकर भवानक अन्धकारमें

दौड़ते हैं और एक-दूसरेसे भिड़कर लिपटे रहते

हैं। जाडेके कष्टसे कौपकर कटकटाते हुए उनके

दाँत टूट जाते हैं। भूख-प्यास भी वहाँ बड़े

जोरकों लगती है। इसी प्रकार अन्यान्य ठषद्रव भी

होते रहते हैं। ओलोंके साथ बहनेबाली भय

बायु शरीरमें लगकर हङ्कियौको चूर्ण किवरे देती है

और उनसे जो मज्जा तथा रक्त गिरता है, उसीकों

ये ल्लुधातुर प्राणी खते हैं। एक-दूसरेके शरीरसे

खाते हैं। उसमें जलते समय वह ज्याकुल हो- | सटकर जे परस्पर रक्त चाटा करते हैं। इस प्रकार

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