* ब्रह्मखण्ड + ३५
॥...4.4.......4..4..4. 4.4... ..4.. 4 ..4..4...4 4.4.. 4..4 4 .4.. 4 .4....4..4 {4 .4 .।.4.। , .4 {..4..4..]
संस्कार मड़लके दिन सम्पन्न हुआ। "उप" शब्द | पूज्य पुरुषोमे सबसे अधिक है; इसलिये इसका
अधिक अर्थका बोधक है ओर पुंल्लिङ्गं ' बर्हण ' | नाम “उषवर्हण' होगा-एेसा वसिष्ठजीने कहा।
शब्द पृज्य-अर्थमें प्रयुक्त होता है। यह बालक | (अध्याय १२)
जन (८
ब्रह्माजीके शापसे उपबर्हणका योगधारणाद्वारा अपने शरीरको त्याग देना,
मालावतीका विलाप एवं प्रार्थना करना, देवताओंको शाप देनेके लिये
उद्यत होना, आकाशवाणीद्रारा भगवान्का आश्वासन पाकर
देवताओंका कौशिकीके तटपर मालावतीके दर्शन करना
सौति कहते है -- शौनक! अपने यहाँ पुत्र- दुःख प्राप्त होते हैं।'
जन्मके उत्सवे गन्धर्वराजने बड़ी प्रसन्नताके साथ ऐसा कहकर ब्रह्माजी पुष्करसे अपने धामको
ब्राहम्णोको नाना प्रकारके रत्न और धन दिये।| चले गये ओर उपबर्हण गन्धर्बने तत्काल उस
समयानुसार बड़े होनेपर उपबर्हणने वसिष्ठजीके | शरीरको इस प्रकारसे त्याग दिया- मूलाधार,
द्वारा परम दुर्लभ हरि-मन्त्रकी दीक्षा पाकर दुष्कर स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध और आज्ञा
तपस्या प्रारम्भ की। एक समयको बात है, वे | नामवाले छः चक्रोंका क्रमशः भेदन करके उन्होंने
गण्डकीके तटपर विराजमान थे। उन्हें युवावस्था | इडा आदि नाडियोका भेदन आरम्भ किया । इडा,
प्राप्त हो चुकी थी। उस समय पचास गन्धर्वकन्याओनि | सुषुम्णा, मेधा, पिङ्गला, प्राणहारिणी, सर्वज्ञानप्रदा,
उन्हें देखा। देखते ही वे सब-की-सब मोहित | मनःसंयमनी, विशुद्धा, निरुद्धा, वायुसंचारिणी, तेजः-
हो गीं । उन सबने उपवर्हणको पतिरूपमें प्राप्त शुष्ककरी, बलपुष्टिकरी, वुद्धिसंचारिणी, ज्ञानजुम्भन-
करनेका संकल्प ले योगशक्तिसे प्राणोंको त्याग | कारिणी, सर्वप्राणहरा तथा पुनजीवनकारिणी-- इन
दिया और चित्ररथ गन्धर्वके घर जन्म लेकर | सोलह नाडिर्योका भेदन करके मनसहित
पिताकी आज्ञासे उनके साथ विवाह कर लिया। | जीवात्माको ब्रह्मरन्र्मे लाकर वे योगासनसे बैठ
उपबर्हणने दीर्घकालतक उन सबके साथ विहार | गये ओर दो घड़ीतक उन्होंने आत्माको आत्मामें
किया। चिरकालतक निरन्तर उनके साथ राज्य | ही लगाया । तत्पश्चात् वे जातिस्मर (पूर्वजन्मकी
करके एक दिन वे ब्रह्माजीके स्थानपर गये और | बातोंकों याद रखनेवाले) योगिराज उपबर्हण
वहाँ श्रीहरिका यशोगान करने लगे । वहीं रम्भाको | ब्रह्मभावको प्राप्त हो गवे। तीन तारवालौ दुर्लभ
नृत्य करते देख उपबर्हणके मने वासना जाग | बीणाको बायें कंधेपर रखकर दाहिने हाथमें शुद्ध
उठी और उनका वीर्य स्खलित हो गया। इससे | स्फटिककी माला लिये वे वेदके सारतत्त्व तथा
उनकी बड़ी हँसी हुई और ब्रह्माजीने उन्हें शाप | उद्धारके उत्तम बीजरूप परात्पर परब्रह्ममय (कृष्ण)
देते हुए कहा-' तुम गन्धर्व-शरीरको त्याग दो | इन दो अक्षरोंका जप करने लगे। उन्होने कुशको
और शुद्रयोनिको प्राप्त हो जाओ। फिर समयानुसार | चटाईपर पूर्वकी ओर सिरहाना करके पश्चिम
वैष्णबोंका संसर्ग प्राप्त कर तुम पुनः मेरे पुत्रके | | दिशाकी ओर दोनों चरण फैला दिये और इस तरह
रूपमें प्रतिष्ठित हो जाओगे। बेटा! विपत्तिका | सो गये, मानो कोई पुरुष सो रहा हो।
सामना किये बिना पुरुषोंकी महत्ता प्रकट नहीं उनके पिता गन्धर्वराजने उन्हें इस प्रकार
होती। संसारमें सभीको बारी-बारीसे सुख और | देहत्याग करते देख स्वयं भी अपनी पत्नीके साथ