पूर्वभागे जवपोऽध्यायः
आपने अपनी जय कौ अभिलाषा से यह क्या कर दिया? | नावाभ्यां विद्यते न्यो लोकानां परमेध्ठरः।
मैं ही अकेला शक्तिमान् हूँ और मेंरे अतिरिक्त दूसरा कोई | एक मूर्तिद्विघा भिन्ना नारायणपितामहौ॥ ४०॥
होगा भी नहीं। हम दोनों के अतिरिक्त इन लोकौ का परमेश्वर दूसरा कोई
श्रत्वा जारायणो वाद्यं ब्रह्णोक्तयतद्धितः। नहीं है। नारायण और पितापहरूप में द्विपा विभक्त एक हो
मान्यपर्वपिदं वाक्यं बभाषे पुरं हरिः॥३२॥ मूर्ति है।
ब्रह्मा द्वारा कहे गये इस वाक्य को सुनकर सावधान होते | तेमैवपुक्तो ब्रह्माणं वामुदेवोग्रवीदिदम्।
हुए नारायण हरि ने सान्वनापूर्ण ये मधुर वचन कहे। इवं प्रतिज्ञा भवतो विनाशाय भविष्यति॥ ४ १॥
भवायाता विश्वाता च स्वयंभू: प्रपितामह:। उनके द्वारा ऐसा कहने पर वासुदेव ने ब्रह्माजी से कहा-
च मात्सर्याधियोगेत ज्वाराणि पिहितानि मे॥३३॥ आपकी यह प्रतिज्ञा विनाश के लिए होगी।
१ वाधितुपचिच्छोवदव ह वाविधृभिकाया। कि न पश्यसि योगेन ब्रह्माधिपतिमव्ययम्।
व पितामहम्॥ ३४॥
आप हौ धाता विधाता स्वयंभू और प्रपितामह हैं। मैंने
किसो ईष्यांवश द्वार बन्द नहीं किये थे। किन्तु मैने तो केवल
लोला के लिए ही ऐसा किया था, आपको बाधित करने की
इच्छा से नही
न हि त्वं वाये ब्रह्मन् मान्यो हि सर्वथा भवान्।
पप क्षपस्व कल्याण यन्मयापकृतं तव॥ ३५॥
हे ब्रह्मन्! आप किसी प्रकार बाधित नहीं हैं। आप तो
सर्वथा हमारे लिए मान्य हैं। हे कल्याणकारी! जो मैने
आपका अपकार किया है, मुझे क्षमा करेंगे।
अस्माच्च कारणादुब्रह्मपुतरो भवतु मे भवान्।
पटायोतिरिति यातो पव्या जगन्पय॥। ३६॥
हे ब्रह्मन्! ट्सौ कारण से आप मेरे पुत्र हो जायें। हे
जगन्मय! पेर प्रिय करते कौ इच्छा से पड़ायोनि नाम से
विख्यात हों।
ततः म भगवान्देवो वरं दत्वा किरोटिने।
प्रहर्षमतुल॑ गत्वा पुनर्विष्णुमभाषत॥ ३७॥
अनन्तर भगवान् ब्रह्मदेत किरीटधारी जिष्णु को दर प्रदान
करके और अत्यन्त प्रन होकर पुनः विष्णु से बोले।
भवान्सर्वात्मकोऽनन्तः सर्वेषां परमेश्वरः।
सर्वभूतात्तरात्मा वै परं ब्रह्न सनातनम्॥ ३८॥
आप खव के आत्पस्वरूप, अनन्त, परमेश्वर, समस्तभूतों
कौ अन्तरात्मा तथा सनातन परत्रद्म हैं।
अहं वै सर्वलोकानामात्पालोको पहेश्वर:।
मन्मवं सर्वमेवेदं ब्रह्मां पुरुषः षर॥३९॥
थैं हो समस्त लोको के भीतर रहने वाला प्रकाशरूप
महेश्वर हूँ। यह समस्त चराचर मेरा अपना है। मै ही परम
पुरुष ब्रह्मा हूँ।
प्रधानपुरुषेशान वेदाहं परमेश्वरम॥४२॥
क्या आप योग द्वारा अविनाशी ब्रह्माधिपति को नहीं
देखते हैं? प्रधान और पुरुष के ईश उस परमेश्वर को प
जानता हूँ।
यं न पश्यतति योगोद्धा: साख्या अपि परहे्वरम्।
उअनादिनिषनं ब्रह्न तमेव शरणं व्रज॥। ४३॥
जिस महेश्वर को योगीन्द्र ओर सांख्यवेता भी नहं देख
पाते हैं, उस अनादिनिधन ब्रह्म की शरण में जाओ।
ततः कुड्धोडप्वुजाभाक्षं ग्रहा प्रोवाच केलवम्।
भगवधूनमात्मान वेदि तत्परमाक्षरम्॥ ४४॥
ब्रह्माणं जगतामेकमात्मानं परपर पदम्।
आवाभ्यां विद्यते त्वन्यो ल्लोकानां परपेश्चर:॥ ४५॥
इस वात से कुट होकर अम्बुज की आभा-तुल्य नेत्र
ताले ब्रह्मा ने केशव से कहा- भगवन् ! मैं अवश्य हो परम
अविनाशी आत्मतत्व को जानता हूँ, जो ब्रह्मस्वरूप, जगत्
कौ आत्मा ओर परमपद है। हम दोनों के अतिरिक्त लोकों
का परमेश्वर कोई दूसरा नहीं है।
संत्यज्य निदं विपुलां स्वमात्पानं विलोकया
तस्व तत्कोधर्ज वाद्यं श्रुत्वापि स तदा प्रमुः॥४६॥
इस दोर्घ योगनिद्रा का परित्याग करके अपनी आत्मा में
देलो। इस प्रकार उनके क्रोधभरे वचन सुनकर भौ, उस
समय प्रभु ने कहा-।
परामैवं चट् कल्याण परिवादं महात्पन:।
न पे ह्ाविदित॑ ब्रह्मन् नान्यवाहं कदापि ते॥ ४७॥
हे कल्याणकर! इस प्रकार उन महात्मा के विषय में
निन्दा कौ बात मुझ से मतत कहो। हे ब्रह्मन्! मेरे लिए