८ * पुराणं गारुडं वक्ष्ये सारं विष्णुकथाश्रयम् *
[ संक्षिप्त गरुडपुराणाडु
और गोदानसे सूर्यलोककी प्राप्ति होती है।
यान और शय्याका दान करनेपर भार्या, भयभोत्तको
अभय प्रदान करनेसे ऐश्वर्यकौ प्राप्ति होती है। धान्यदानसे
सश्चत अविनाशी सुख तथा वेदाध्यापन (वेदके दान)-से
ब्रह्मका सांनिध्य-लाभ होता है। गायको घास देनेसे पापोंसे
मुक्ति हो जाती है। ईधनके लिये काष्ट आदिका दान करनेसे
व्यक्ति प्रदोप्त अग्निकि सपान तेजस्वी हो जाता है।
रोगियोंके रोग-शान्तिके लिये औषधि, तेल आदि पदार्थ
एवं भोजन देनेवाला मनुष्य रोगरहित, सुखी और दीर्घायु
हो जाता है। जो मनुष्य परलोकमें अक्षय सुखकों
अभिलाषा रखता है, उसे अपने लिये संसार या प्रर्मे जो
वस्तु सर्वाधिक प्रिय है, उस वस्तुका दान गुणवान्
ब्राह्मणको करना चाहिये।
दानधर्मसे बढ़कर श्र धर्म इस संसारम प्राणियोंके लिये
कई दूसरा नहीं है। गौ, ब्राह्मण, अग्नि तथा देवॉको दिये
जानेवाले दानसे जो मनुष्य मोहवश्च दूसरोंकों रोकता है, वह
पापौ तिर्यक् (पक्षो)-को योनिको प्राप्त करता है।
दानधर्मके बाद प्रायश्चित्तका। निरूपण किया गया है।
ब्रहहत्या, मदिरपान, स्वर्णको चोरी, और गुरुपत्रौगमन - ये
चार महापाप कहे गये है । इन सभीका साथ करनेवाला
पांचवां महापातकौ होता है । गोहत्या आदि जो अन्य पाप
हैं, वे उपपातकर्मे माने गये ह । इन सभी पापोंका प्रायश्चित-
विधान यहाँ प्रस्तुत किया गया है।
इसके अनन्तर भारतवर्षका वर्णन, तीर्थोंका वर्णन और
डनकी महिमा प्रस्तुत कौ गयौ है। ज्योतिश्चक्रमें वर्जित
नक्षत्र, उनके देवता एवं कतिपय शुध-अज्ुभ योगों तथा
मुहूर्तोंका यर्णन, ग्रहदशा, यात्रा, शकुन, छीकका फल,
ग्रहोंके शुभ एवं अशुभ स्थान तथा उनके अनुसार शुभाशुभ
फलका विवेचन यहाँ प्रस्तुत है। इसी प्रकार लग्न-फल,
राशियोंके चर-स्थिर आदि भेद, ग्रहोंका स्वभाव तथा सात
वबारोंमें किये जाने योग्य प्रशस्त कार्यका भी निरूपण किया
गया है। सामुद्रिक शास्त्रके अनुसार स्थ्री-पुरुषके शुभाशुभ
लक्षण, मस्तक एवं हस्तरेखासे आयुका परिज्ञान भी यहाँ
कराया गया है। स्वरोदय विज्ञातका निरूपण भी हुआ है।
तिथि, नक्षत्र आदि ब्रतोंका निरूपण, चातुर्मास्थव्रतका
निरूपण, शिवरात्रित्रत-कथा तथा व्रत-विधान, एकादशोौ-
माहात्म्य आदि प्रस्तुत किया गया है। इसके अतिरिक्त
सूर्यवंश-चन्द्रवंशका वर्णन, भविष्यके राजवंशका वर्णन
किया गया है । रत्नोंके प्रादुभांवका आख्यान्, वन्न (हर ) -
कौ परोक्षा, पद्मराग, मरकत्तमणि, इन्द्रनौलमणि, वैदूर्यमणि,
कर्कैतनमणि, भीष्मकमणि तथा मुक्ता आदि रत्नोंके विदिध
भेद, लक्षण और परोक्षण-विधि बतायी गयी है।
गङ्गा आदि विविध तीधौँ- प्रयाग, वाराणसी, कुरुक्षेत्र,
द्वारका, केदार, कदरिकाश्रम, श्रैतट्रीप, मायापुरी (हरिद्वार),
नैमिषारण्य, पुष्कर, अयोध्या, चित्रकूट, काशीपुर, तुंगभद्रा,
श्रीशैल, सेतुबन्ध-रामे धर, अमरफण्टक, उज्जयिनी, मधथुरापुरो
आदि स्थानोंकों महातीर्थ कहा गया है। इन पवित्र
तीर्थस्थलॉगें किया गया स्नान, दान, जप, पूजा, श्राद्ध तथा
पिण्डदान आदि अक्षय होता है।
गयातीर्थका माहात्म्य तथा गयाक्षेत्रमें श्राद्धादि करनेका
फल सविस्तार समारोहपूर्यक यहाँ प्रस्तुत हुआ है। गय
नामक असुरकौ उत्कट तपस्यासे संतप्त देवगणोंकी
ग्रार्थनापर भावान् विष्णुकौ गदासे बह असुर मारा गया।
उस गयासुरके नामपर हो गयातौर्थं प्रसिद्ध हुआ। यहाँ
गदाधर भगवान् विष्णु मुख्यदेवके रूपमें अवस्थित हैं।
गयामें श्रद्ध करनेसे पञ्चमहापापोकौ निवृत्ति तो होती
हो है, इसके साथ हो अन्य सम्पूणं पार्पोका भौ विनाश होता
है। जिनको संस्काररहित दशामें मृत्यु हो जाती है अथवा
जो मनुष्य पशु या चोरद्वारा मारे जते हैं। जिनकी मृत्यु
सर्पके काटनेसे होती है, ये सभी गयाश्राद्धके पुण्यसे
उन्मुक्त होकर स्वर्ग चले जाते हैं। गयापें पिण्डदान
करनेमाज़से फितरोंकों पत्म गति प्राप्त होती है।
गयातीर्थमें पितरोंके लिये पिण्डदान करनेसे मनुष्यकों
जो फल प्राप्त होता है, सौ करोड़ यर्षोपे भी उसका वर्णने
नहीं किया जा सकता है। यहाँतक कहा गया हैं कि
गयागमनमात्रसे हौ व्यक्ति पितऋणसे मुक्त हो जाता है-
"गयागमनमात्रेण पितृणामतृणं भवेत् ।' कहते हैं गयाक्षेत्रमे
भगवान् विष्णु पितृदेवताके रूपमे विराजमान रहते हैं।
पुण्डरीकाक्ष उन भगवान् जनार्दनका दर्शन करनेपर मनुष्य
अपने तीनों ऋणोंसे मुरु हो जाता है।
गयाक्षेत्रमें कोई ऐसा स्थान नहीं है, जहाँपर तोर्थ नहों
है। पाँच कोशके क्षेत्रफलमें स्थित गयाक्षेत्रमें जहाँ-तहाँ भी
पिण्डदान करनेवाला मनुष्य अक्षयफलको प्राप्तकर अपने
पितृगर्णोको ब्रष्यलोक प्रदान करता है।
प्राचोनकालमें रुचि नामक प्रजापति संसारके माया-