६ अथर्ववेद संहिता भाग-२
३०१७. बश्नेरध्वर्यो मुखमेतद् वि पृदज्याज्याय लोकं कृणुहि प्रविद्वान्।
घृतेन गात्रानु सर्वा वि मृडढ़ि कृण्वे पन्थां पितृषु यः स्वर्ग: ॥३१॥
हे अध्वर्युं ! इस पोषक ओदन के ऊपरी भाग को भली प्रकार शुद्ध करें, तदुपरान्त ओदन के मध्य घृतरसिंचन
के लिए गर्तरूप स्थान बनाएँ तथा सभी अवयवो को धृत से सींचें । जो मार्ग पितरगणों के समीप स्वर्ग में ले जाता
है, ओदन के माध्यम से हम उसी का निर्माण करते है ॥३६॥
३०१८. बभ्र रक्षः समदमा वपैभ्योऽब्राह्मणा यतमे त्वोपसीदान् ।
पुरीषिणः प्रथमानाः पुरस्तादार्षेयास्ते मा रिषन् प्राशितारः ॥३२ ॥
हे ब्रह्मौदन ! जो अब्राह्मण (ब्रह्मवृत्ति से विरत) तुम्हारे निकट (सेवन करने के उद्देश्य से) आएँ, उनमें से
अहंकारी राक्षसों को दूर कर दें आपका सेवन करने वाले अन्नार्थी यशस्वी कऋषिगण कभी विनष्ट न हों ॥३२ ॥
३०१९. आर्षेयेषु नि दध ओदन त्वा नानार्षेयाणामप्यस्त्यत्र ।
अम्मिर्मे गोप्ता मरुतश्च सर्वे विश्वे देवा अभि रक्षन्तु पक्वम् ॥३३॥
है ओदन ! हम आपको क्षि पुत्रों में स्थापित करते हैं, अनार्षेयों के भाग इसमें नहीं हैं। अग्निदेव
और मरुद्गण इसके संरक्षक हैं तथा सम्पूर्ण देवगण भी इस परिपक्व ज्ञान ब्रह्मौदन का चारों ओर
से संरक्षण करें ॥३३ ॥
३०२०. यज्ञं दुहानं सदमित् प्रपीनं पुमांसं धेनुं सदनं रयीणाम्।
प्रजामृतत्वमुत दीर्घमायु रायश्च पोषैरुप त्वा सदेम ॥३४ ॥
यह ब्रह्मौदन यज्ञो का उत्पादक होने से सदैव प्रवृद्ध करने वाला, घारणकर्त्ता एवं सम्पत्ति का घर है । हे
ज्ञाननिष्ठ ओदन ! हम आपके दरार पुत्रपौत्रादि प्रजा की पुष्टि, दीर्घायु ओर धन-सम्पदा प्राप्त करें ॥३४ ॥
३०२१. वृषभोऽसि स्वर्गं ऋषीनार्षेयान् गच्छ ।
सुकृतां लोके सीद तत्र नौ संस्कृतम् ॥३५
हे अभीष्टपूरक ओदन ! आप स्वर्गलोक को प्रदान करने वाले है । अतः आप हमे द्वारा प्रदत्त किये जाने
पर आर्पेय ऋषियों को प्राप्त हों । तत्पश्चात् पुण्यात्माओं के स्वर्गधाम में स्थित हों । वहाँ हम दोनों का
(भोक्ता-भोक्तव्यात्मक) संस्कार निष्यत्न होगा ॥३५ ॥
३०२२. समाचिनुष्वानुसंप्रयाह्यग्ने पथः कल्पय देवयानान् ।
एतैः सुकृतैरनु गच्छेम यज्ञं नाके तिष्ठन्तमधि सप्तरश्मौ ॥३६ ॥
हे ओदन ! आप सुसंगत होकर गंतव्य स्थल मे जाएँ । है अग्निदेव ! आप देवयानमार्ग की रचना करें ।
हम भी पुण्यकमों के प्रभाव से सप्त किरणों से युक्त (दु:ख रहित) स्वर्गलोक में स्थिर रहने वाले यज्ञ का अनुकरण
करते हुए वहाँ पहुँचें ॥३६ ॥
३०२३. येन देवा ज्योतिषा द्यामुदायन् ब्रह्मौदनं पक्त्वा सुकृतस्य लोकम् ।
, तेन गेष्म सुकृतस्य लोकं स्वरारोहन्तो अभि नाकमुत्तमम् ॥३७ ॥
जिस ज्ञानयुक्त अन्न (ब्रह्मौदन) द्वारा इन्भरादि देवता देवयान मार्ग से स्वर्गलोक में गये हैं, हम भी उसी
ब्रह्मौदन को पकाकर स्वगीरूढ़ होकर श्रेष्ठ लोक को प्राप्त करें ॥३७ ॥