८ * पुराणं परं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम् +
उनके ध्यान और मन्त्र, मन्त्रके ऋषि और छन्द--इन
सबॉपर पर्याप्त विवेचन किया गया है । पाणण, काञ्च, मृत्तिका,
तप्र, रत्न एवं अन्य श्रेष्ठ धातुओंसे बनी उत्तम लक्षणोंसे युक्त
प्रतिमाका पूजन करना चाहिये । घरमें प्रायः आठ अंगुलतक
ऊँची मूर्तिका पूजन करना श्रेयस्कर माना गया है। इसके साथ
ही ताल्मव, पुष्करिणी, वापी तथा भवन आदिकी
निर्माण-पद्धति, गृहवास्तु-प्रतिष्ठाकी विधि, गृहवास्तुमें किन
देवताओंकी पूजा की जाय, इत्यादि विषयोपर भी प्रकाश डास्म
गया है।
युक्षारोपण, विभिन्न प्रकारके वृक्षोंकी प्रतिक्राका विधान
तथा गोचरभूमिकी प्रतिष्ठा-सम्बन्धी चर्चाएँ मिलती हैं। जो
व्यक्ति छाया, फूल तथा फल देनेवाले युक्षोका रोपण करता
है या मार्गमे तथा देवालयमें वृक्षोंकी लगाता है, वह अपने
पितरॉको बड़े-से-बड़े पापोंसे तारता है और ग्रेपणकर्ता इस
मनुष्यछोकर्में महती कीर्ति तथा दुभ परिणामको प्राप्त करता
है। जिसे पुत्र नहीं है, उसके लिये वृक्ष ही पुत्र हैं।
वृक्षारोपणकर्तकि ल्म्रैकिक-पारल्म्रैकिक कर्म वृक्ष ही करते
रहते हैं तथा उसे उत्तम लोक प्रदान करते हैं। यदि कोई
अश्वत्थ वृक्षका आरोपण करता है तो वही उसके लिये एक
रख पुत्रोंसे भी बढ़कर है। अज्लोक वृक्ष लगानेसे कभी शोक
नहीं होता। बिल्व -वृक्ष दीर्घं आयुष्य प्रदान करता है। इसी
प्रकार अन्य वृक्षोके गोपणकी विभिन्न फलश्रुतियाँ आयी है ।
सभी माङ्गलिक कार्य निर्विप्नतापूर्वक सम्पन्न हो जायै तथा
श्ान्ति-भङ्गं न हो इसके छिये ग्रह-शञात्ति और शान्तिद
अनुष्ठानोंका भी इसमें वर्णन मिलता है।
अविध्यफुराणके इस पर्वमें कर्मकाण्डका भी विद्द वर्णन
पराप्त होता है। विविध यज्ञॉका विधान, कुष्ड-निर्माणकी
योजना, भूमि-पूजन, अग्निसंस्थापन एवं पूजन, यज्ञादि कमेकि
वर्णन, यज्ञपात्रोंका स्वरूप और पुर्णाहतिकी विधि,
यज्ञादिकर्ममें दक्षिणाका माह्यल्य और कलदा-स्थापन आदि
विधि-विधानोंका विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।
चास्ररविहित यज्ञादि कार्य दक्षिणारहित एवं परिमाणविहीन
कभी नहीं करना चाहिये। ऐसा यज्ञ कभी सफल नहीं होता।
जिस यज्ञका जो माप यतस्थया गया है, उसीके अनुसार करना
चाहिये ।
इस क्रममें क्रौञ्च आदि पक्षियोंके दर्शनका विशेष फल
भी वर्णित हुआ है। मयुर, वृषभ, सिंह एवं क्रौञ्च ओर् कपिका
घरमें, खेतमें और वृक्षपर भूलसे भी दर्शन हो जाय तो उसको
नमस्कार करना चाहिये। ऐसा करनेसे दर्शकके अनेक जन्मोंके
पाप नष्ट हो जाते है, उनके दर्शनमात्रसे घन तथा आयुकी वृद्धि
होती है।
करई भी कर्म देवकर्म या पितृकर्म नियत समयपर किये
जानेपर कारके आधारपर ही पूर्णरूपेण फलग्रद होते हैं।
समयके बिना की गयी क्रियाओंका कोई फल नहीं होता।
अतः कालविभाग, मास-विभाजन, तिथि-निर्णय एवं वर्षभरके
विशेष पवो तथा तिथियोंके पुण्यप्रद कृत्योंका विवेचन भी इस
पर्वमें साङ्गोपाङ्गरूपसे सम्पन्न हुआ है। जो सर्वसाधारणके
लिये उपयोगी भी है।
अपने यहाँ गोत्र-प्रवरको जाने बिना किया गया कर्म
विपरीत फलदायी होता है। समान गोत्रमें विवाहादि
सम्बन्धोंका निषेध है। अतः गोत्र-प्रवरकी परम्परको आनना
अत्यन्त आवश्यक है। अपने-अपने मोज्र-प्रबस्को पिता,
आचार्य तथा ओदर जानना चाहिये। इन सारी
प्रक्रियाऑका विवेचन यहाँ उपलब्ध है।
भविष्यपुराणे मध्यमपर्यके याद प्रतिसर्गपर्व चार
खण्डोंमें है। प्रायः अन्य पुराणोंमें सत्ययुग, तरता ओर द्वापरके
प्राचीन राजाओकि इतिहासका वर्णन मिलता है, परंतु
भविष्यपुराणमें इन प्राचीन रजाओंके साथ-साथ करियुगी
अर्वाचीने राजक आधुनिक इतिहास भी मिलता है।
वास्तवर्मे भविष्य नामकी. सार्थकता
प्रतिसर्गपर्वमें ही चरितार्थ हुई दीखती है । प्रतिसर्गपर्वके प्रथम
खण्डे सत्ययुगके राजाओंके वराका परिचय, त्रेतायुगके सूर्य
एवं चनद्र-राज्यदोंका वर्णन, द्वापरयुगके चन्द्रवंशीय
गजाओकि वृत्तान्त वर्णित हैं। इसके याद स्लेच्छवंशीय
ग्रजाओंका वर्णन है। प्रारम्भे राजा प्रधोतने कुरुक्षेत्रमें यज्ञ
करके स्लेच्छोंका विनाश किया था, परंतु कलिने स्वयं
स्लेच्छरूपमें राज्य किया तथा भगवान् नारायणको अपनी
पूजासे प्रसत्नकर वरदान प्राप्त किया। नाययणने कलसे कहा
कि “कई दृष्टियॉंसे अन्य युगोकी अपेक्षा तुम श्रेष्ठ हो, अतः