* गणपतिखण्ड * ३७५
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इस उत्तम कवचके पाँच लाख जपसे हौ वे | नाभिकी रक्षा करे। “3४ हीं कालिकायै स्वाहा'
सिद्धकवच हो गये। तत्पश्चात् वे अयोध्यामें लौट | सदा मेरे पृष्ठभागकी रक्षा करे। 'रक्तबीजविनाशिन्य
आये और इसी कवचकौ कृपासे उन्होंने सारी |स्वाहा' सदा हाथोंकी रक्षा करे। '3० हीं बली
पृथ्वीकों जीत लिया। | मुण्डमालिन्यै स्वाहा' सदा पैरोंकी रक्षा करे । ' ॐ
नारदजीने कहा--प्रभो! जो तीनों लोकोंमें | हीं चामुण्डायै स्वाहा" सदा मेरे सर्वाज्जकी रक्षा
दुर्लभ है, उस दशाक्षरी विद्याको तो मैंने सुन | करे! पूर्वमें 'महाकाली' और अग्निकोणमें
लिया। अब मैं कवच सुनना चाहता हूँ, वह | "रक्तदन्तिका" रक्षा करें। दक्षिणे चामुण्डा रक्षा
मुझसे वर्णन कीजिये। करें। नैकरत्यकोणमें " कालिका ' रक्षा करें। पश्चिममें
श्रीनारायण बोले--विप्रेन्द्र! पूर्वकालमें |'श्यामा' रक्षा करें। वायव्यकोणमें “चण्डिका',
त्रिपुर-वधके भयंकर अवसरपर शिवकी विजयके | उत्तरमें विकटास्या ' और ईशानकोणमें ' अदट्ृहासिनी '
लिये नारायणने कृपा करके शिवको जो परम रक्षा करें। ऊर्ध्वभागमें 'लोलजिद्ना' रक्षा करें।
अद्भुत कवच प्रदान किया था, उसका वर्णन | अधोभागमे सदा 'आधद्यामाया' रक्षा करें। जल,
करता हूँ, सुनो। मुने! वह कवच अत्यन्त | स्थल ओर आन्तरिक्षमें सदा 'विश्वप्रसू' रक्षा करें।
गोपनीयोंसे भी गोपनीय, तत्त्वस्वरूप तथा सम्पूर्णं वत्स ! यह कवच समस्त मन्त्रसमूहका
मन्त्रसमुदायका मूर्तिमान् स्वरूप है। उसीको | मूर्तरूप, सम्पूर्ण कवचोंका सारभूत ओर उत्कृष्टसे
पूर्वकालमें शिवजीने दुर्वासाकों दिया था और | भी उत्कृष्टतर है; इसे मैंने तुम्हें बतला दिया।
दर्वासाने महामनस्वौ राजा सुचन्द्रको प्रदान | इसी कवचकौ कृपासे राजा सुचन्द्र सातों ट्वीपोंके
किया था। अधिपति हो गये थे। इसी कवचके प्रभावसे
"ॐ हीं श्री क्लीं कालिकायै स्वाहा ' मेर | पृथ्वीपति मान्धाता सप्तद्वीपवती पृथ्वीके अधिपति
मस्तककी रक्षा करे । 'क्लीं' कपालकी तथा ' हँ | हुए थे। इसीके बलसे प्रचेता ओर लोपश सिद्ध
हीं ही" नेत्रोंकी रक्षा करे। "ॐ हीं त्रिलोचने हुए थे तथा इसीके बलसे सौभरि और
स्वाहा' सदा मेरी नासिकाकी रक्षा करे। ' करीं | पिप्पलायन योगियोंमें श्रेष्ठ कहलाये। जिसे यह
कालिके रक्ष रक्ष स्वाहा" सदा दाँतोंकी रक्षा करे। कवच सिद्ध हो जाता है, वह समस्त सिद्धियोंका
"हीं भद्रकालिके स्वाहा मेरे दोनों ओर्ठोकौ रक्षा [स्वामी बन जाता है। सभी महादान, तपस्या
करे । ' ॐ हीं हीं क्लीं कालिकायै स्वाहा' सदा | ओर व्रत इस कवचक सोलहवीं कलाक भी
कण्ठकी रक्षा करे। " ॐ हुं कालिकायै स्वाहा ' | बराबरी नहीं कर सकते, यह निश्चित है। जो
सदा दोनों कानोंकी रक्षा करें। ' ॐ क्रीं क्रीं क्लीं | इस कवचको जाने विना जगज्जननी कालीका
काल्यै स्वाहा" सदा मेरे कंधोंकी रक्षा करे। ' ॐ भजन करता है, उसके लिये एक करोड़ जप
क्रीं भद्रकाल्यै स्वाहा" सदा मेरे वक्ष:स्थलकी रक्षा करनेपर भी यह मन्त्र सिद्धिदायक नहीं होता ।
करे। "ॐ क्रीं कालिकायै स्वाहा" सदा मेरी | (अध्याय ३७)
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