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घृणिखण्ड ]

प्रकट होता है। यह शान्तिमूलक ज्ञान निर्मल तथा

पापनाशक है । इसलिये तुम शान्ति धारण करो; वह सब

प्रकारके सुखोंको बढ़ानेवाली है । शत्रु और मित्रमे समान

भाव रखो। तुम अपने प्रति जैसा भाव रखते हो, तैसा

ही दूसरोंके प्रति भी यनाये रहो । सदा नियमपूर्वक रहकर

आहारपर विजय प्राप्त करो, इद्धियोको जीतो । किसीसे

मित्रता न जोड़ो; यैस्का भी दूरसे ही त्याग करो । निस्सग

और निःस्पृह होकर एकान्त स्थानमें रहो। इससे तुम

सबको प्रकाश देनेवाले ज्ञानी, सर्वदर्शी बन जाओगे।

बेटा ! उस स्थितिमें पहुँचनेपर तुम मेरी कृपासे एक हो

स्थानपर बैठे-बैठे तीनों व्थेकॉमें होनेवाली बातोंकों जान

झछोगे--इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।

कुल कहता है--विप्रवर ! उन सिद्ध महात्माने

ही मेरे सामने ज्ञानका रूप प्रकाशित किया था। उनकी

आश्चमं स्थित होकर मैं पूर्वोक्त भावनाका ही चिन्तन करने

लगा । इससे सद्गुरुकी कृपा हुई, जिससे एक ही स्थानमें

रहकर मै त्रिभुवनमें जो कुछ हो रहा है, सबको जानता हूँ।

च्यवनने पूछा--खगश्रेष्ठ ! आप तो ज्ञानवानेमिं

श्रेष्ठ हैं, फिर आपको यह तोतेकी योनि कैसे प्राप्त हुई ?

कुझलने कहा--ब्रह्मन्‌ ! संसर्गसे पाप और

संसर्गसे पुण्य भी होता है। अतः शुद्ध आचार-

विचारवाले : कल्याणमय पुरुषकों कुसड्का त्याग कर

देना चाहिये। एक दिन कोई पापी व्याध एक तोतेके

बच्चेको बाँधकर उसे बेचनेके लिये आया। वह बच्चा

देखनेमें बड़ा सुन्दर और मीठी बोली बोलनेवाल्म था।

एक ब्राह्मणने उसे खरीद लिया और मेरी प्रसन्नताके लिये

उसको मुझे दे दिया । मैं प्रतिदिन ज्ञान और ध्यानमें स्थित

रहता था। उस समय वह तोतेका बच्चा बाल-स्वभावके

कारण कौतूहलवझ मेरे हाथपर आ बैठता और बोलने

लगता-- "तात ! मेरे पास आओ, बैठो; स्रानके लिये

जाओ और अब देवताओंका पूजन करो ।' इस तरहकी

मीठी-मीठी बातें वह मुझसे कहा करता था। उसके

# मरणे यादृशो भायः प्राणिनो परिजायते ॥

* कुञ्त्का च्यवनको अपने पूर्वं -जीकनका वृत्तान्त बताकर ज्ञानका उपदेश करना ५

भणण ००० ३७७० ०७७७ ७३७० २०० छूकछ ७२३३ रूछूक कक २२० ऋकक२ ०३२ कक हे

खाग्विनोदमें पड़कर मेरा सारा उत्तम ज्ञान चला गया।

एक दिन मैं फूल और फल ल्जनेके लिये बनमें

गया था। इसी नीचमें एक बिल्थव आकर तोतेको उठा

ले गया। यह दुर्घटना मुझे केवल दुःख देनेका कारण

हुई। थिल्त्रव उस पक्षीको मारकर खा गया । इस प्रकार

उस तोतेकी मृत्यु सुनकर मुझे बड़ा दुःख हुआ । असह्य

ज्ञोकके कारण अत्यन्त पीडा होने लगी। मैं महान्‌

मोह-जालमें बैंधकर उसके लिये प्रल्त्रप करने रगा ।

सिद्ध महात्माने जिस ज्ञानका उपदेश दिया था, उसकी

याद जाती रही । तब तो मीठे वचन बोलनेवाले उस

तोतेको तथा उसके ज्ञानको याद करके मैं हा वत्स ! हा

वत्स !' कहकर प्रतिदिन विछाप करने छगा।

इस प्रकार विल्थ॒प करता हुआ मैं ज्ञोकसे अत्यन्त

पीडित हो गया। अच्ततोगत्वा उसी दुःखसे मेरी मृत्यु हो

गयी । उसीकी भावनासे मोहित होकर मुझे प्राण त्यागना

पड़ा | द्विजश्रेष्ठ ! मृत्युके समय मेरा जैसा भाव था, जैसी

बुद्धि थी, उसी भाव और बुद्धिके अनुसार मेरा तोतेकी

योनिमें जन्म हुआ है । परन्तु मुझे जो गर्भवास प्राप्त हुआ,

बह मेरे ज्ञान और स्मरण-चाक्तिक्रो जायत्‌ करनेवाला

था। गर्भे स्वय ही मुझे अपने पूर्वकर्मका स्मरण हो

आया । मैंने सोचा--'ओह ! मुझ मूर्ख, अजितेन्द्रिय

तथा पापीने यह क्या कर डाला।' फिर गुरुदेवके

अनुग्रहसे मुझे उत्तम ज्ञान प्राप्त हुआ । उनके वाक्यरूपी

स्वच्छ जलसे मेंरे झरीरके भीतर और बाहस्का सारा मल

घुल गया। मेरा अन्तःकरण निर्मल हो गथा । पूर्वजन्ममें

मृत्युकाल उपस्थित होनेपर मैंने तोतेका ही चिन्तन किया

और उसीकी भावनासे भावित होकर मैं मृत्युको प्राप्त

हुआ । यही कारण है कि मुझे पृथ्वीपर तोतेके रूपमें पुनः

जन्म लेना पड़ा। मृत्युके समय प्राणियोंका जैसा भाव

रहता है, वे वैसे ही जीवके रूपे उत्पन्न होदे हैं उनका

इारीर, पराक्रम, गुण और स्वरूप--सब उसी तरहके

होते हैं। वे भाव-स्वरूप होकर ही जन्म लेते हैं।*

तादृश्लाः स्युस्तु सत्तकस्ते तद्गुपास्तत्परक्रमा: | तद्गुणास्तत्स्वरूपाक्ष भावभूता भवन्ति हि ॥ (१२३ ॥ ४६-४७)

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