३३८ |] [ मत्स्य पुराण
भुक्तवा च वेदविदुषि विडालब्रतवर्जिते ।
घूतपात्रं सकनक सोदकुम्भं निवेदयेत् ।१४
प्रीयतामत्र भगवान् परमात्मा दिवाकरः ।
अनेन विधिना सर्व मासिमासि ब्रतंचरेत् । १५
पूवं दिशा में तपनाय नमः:“-इस मन्त्र से अग्निकोण में “मात्त-
ण्डाय नमः" इससे षाम्य दिशा में "दिवाकराय नमः"-ईइससे नैऋत्य
मे "विधात्रे नमः"--इससे पश्चिम में वरुणाय नमः'--इस मन्त्र से---
अनिल दिशा में भास्कराय नमः'- इससे सौम्य दिशा में “वैकर्त नमः”
इससे “रवये नमः" इसे अष्टम दल में पूजन करे ।८-६। आदि से
और अन्त में "परमाटमने नमोऽस्तु" इस मन्त्र से अभ्यर्चन करे । इन
उपयुक्त मन्त्रो से समभ्यर्चन करके जो अन्त ने नमस्कार से दीपित
होते हैं फिर शुक्ल वस्त्रोके द्वारा फल-भक्ष्य-घूप-माल्य और अनुलेपनौ
से गुड़ और लवणसे भक्तिभावके साथ स्थण्डिल में पूजन करना चाहिए
)१०-११। इसके अनन्तर व्याहृति मन््रसे द्विजश्र ष्ठोंका विसर्जन करे ।
शक्ति से भरसक पूर्णतया भक्ति पूर्वक गुड़-क्षीर और धृत आदि पदार्थो
के द्वारा अर्चनकरे । तिलोंसे परिपूर्णं पात्र और सुवर्णं ब्राह्मण की सेवा
भे निवेदित करना चाहिए ।१२। इस प्रकार से नियमों को करने बाला
पुरुष शयन करके प्रातः काल की बेलामें उठकर खड़ा हो जावे । स्नान
और जाप करके बिप्रों के साथ ही घुत और वायस का भोजन करे ।
वेदों का विदान् हो और जिडाल व्रत से रहित हो ऐसे किसी योग्य
ब्राह्मण को सुवर्णं के सहित घृत का पात्र अर्थात् घृत से भरा हुआपात्र
और जल से युक्त कुम्भ निवेदित करे । उस समय में यह कहे कि यहाँ
पर भगवान परमात्मा प्रसन्न होवें । इसी विधान से सब मास-मास में
इस व्रत का समाचरण करना चाहिये !१३-१५।
विशोकसप्तमीं तद्वदवक्ष्यामि मुनिपुङ्कव ! ।
यामुप्योष्य नरः शोकं न कदाचिदिहाश्र.ते ।१६