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है--यदि वे ही प्रजाके प्रति विषमताका व्यवहार करने

लगें तो फिर प्रजा किसकी शरण लेगी ?॥ ३ ॥ सत्पुरुष

जैसा आचरण करते हैं, साधारण लोग भी वैसा ही करते

है । वे अपने आचरणकत द्वारा जिस कर्मको धर्मनुकूल

प्रमाणित कर देते है, लोग उसीका अनुकरण करने लगते

है ॥४॥ साधारण लोग पशुओंके समान धर्म और

अधर्मका स्वरूप न जानकर किसी सत्पुरुषपर विश्वास कर

लेते हैं, उसकी गोदमें सिर रखकर निर्भय और निश्चिन्त सो

जाते है ॥ ५॥ वही दयालु सत्पुरुष, जो प्राणियोंका

अत्यन्त विश्वासपात्र है और जिसे मित्रभावसे अपना हितैषी

समझकर उन्दोनि आत्मसमर्पण कर दिया है, उन अज्ञानी

जीवोकि साध कैसे विश्वासघात कर सकता है? ॥ ६॥

यमदूतो ! इसने कोटि-कोटि जन्मोकी पाप-राशिका

पूण-पूरा प्रायश्ित्त कर लिया है । क्योकि इसने विवश

होकर ही सही, भगवानके परम कल्याणमय (मोक्षप्रद)

नामक उच्चारण तो किया है ॥ ७ ॥ जिस समय इसने

“नारायण' इन चार अक्षरोंका उच्चारण किया, उसी समय

केवल उतनेसे हौ इस पापीके समस्त पापोंका प्रायश्चित्त हो

गया॥८॥ चोर, शराबी, मित्रद्रोही, ब्रह्मघाती,

गुरुपलीगामी, ऐसे लोगोंका संसर्गी; स, राजा, पिता और

गायको मारनेवाला, चाहे जैसा और चाहे जितना बड़ा

पापी हो, सभीके लिये यही--इतना ही सबसे बड़ा

प्रायध्चित है कि भगवानके नामोंका उच्चारण + किया

जाय; क्योंकि भगवन्नामोके उच्चारणसे मनुष्यकी बुद्धि

* चञ्च स्कन्य *

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भगवानूके गुण, लोला और स्वरूपे रम जाती है और

स्वयं भगवान्‌ उसके प्रति आत्मीयबुद्धि हो जाती

है ॥ ९-१०॥ बड़े-बड़े ब्रह्मवादी ऋषियोनि पापोके

बहुत-से प्रायश्चित--कृच्छुचानद्रायण आदि व्रत बतलाये

हैं; परन्तु उन प्रायश्चित्तोंसे पापीकी वैसी जड़से शुद्धि

नहीं होती. जैसौ धगवानके नामोका, उनसे गुम्फित

पोका † उच्चारण करनेसे होती है। क्योंकि वे नाम

पवित्रकीर्ति भगवानके गुणो ज्ञान करानेवाले

हैं॥ ११॥ यदि प्रायश्चित्त करनेके याद भी मन फिरसे

कुमार्गमें--पापकी ओर दौड़े, तो वह चरम सीमाका--

पुरा-पूरा प्रायश्चित्त नहीं है। इसलिये जो लोग ऐसा

प्रायश्चित करना चाहें कि जिससे पापकर्मों और

वासनाओंकी जड़ हौ उखड़ जाय, उन्हें भगवानके

गुणोंका ही गान करना चाहिये; क्योंकि उससे चित्त

सर्वथा शुद्ध हो जाता है॥ १२ ॥

इसलिये यमदूतो ! तुमलोग अजामिलको मत ले

जाओ। इसने सारे पापोंका प्रायश्षित कर लिया है,

क्योकि इसने मरते सपय ‡ भगवानके नामका उच्चारण

किया है॥ १३॥

बड़े-बड़े महात्मा पुरुष यह बात जानते हैं कि

नदे (किसी दूसरे अभिप्रायसे), परिहासमें, तान

अलापनेमें अथवा किसीकी अवहेलना करनेमें भी यदि

कोई भगवानके नामोंका उच्चारण करता है तो उसके सारे

पाप नष्ट हो जाते हैं ॥ १४ ॥ जो मनुष्य गिरते समय, पैर

के इस प्रसङ्गमे ` 'कम-व्याहरण'का अर्थ नामोच्चारणमाज ही है। भगवान्‌ श्रीकृष्ण कहते हैं--

चद्‌ गोविन्देति चुक्िश कृष्णा माँ दूख्वासिनम्‌। ऋणमेतत्‌ प्रवृद्धं थे. हृदयात्रापसपति ॥

"मेरे दूर होनेके कारण द्रौपदोने ओर-जोरसे, "गोविन्द गोविन्द" इस प्रकार करुण-क्रत्दन करके मुझे पुकार । वह ऋण मेरे ऊपर बढ़ गया है

और मै हदवस उसका भार क्षणभरके लिये भौ नहीं हटता।

ग `जामपै' कहनेका यह अभय है कि भयानकः केवल नाम “मरम, 'कृष्ण-कृण', "हरि हि, -त्यण-नारायण' अन्तः करणकी

शुद्धिके लिये- पार्क नियुत्तिके लिये पर्याप्त है। 'नमः नमामि' इत्यादि क्रिया जोडनेकी भी कोई आयश्यक नहीं है। नामके साध यहुवचनका

अयोग--भगवानके नाम बहुत-से है, किसीका भी सड्डीर्तन कर ले, इस अभिन्नायसे है। एक व्यक्ति सच नापोंका उच्चाएण करे, इस अधिप्रायसे

नहीं । क्योकि भगवान्‌के गाम अनन्त हैं, सब नाका उच्चारण सम्भष हौ नहीं है । तात्पर्य यह है कि भगजान्‌के एक नामके उच्चारण करनेमात्रसे

सब पाकी निवृत्ति हो जाती है । पूर्ण विशवास न होने तथा नामोन्तारणके पश्चात्‌ भो फ़्प करतेके कपण ही उसका अनुभव नहीं होता।

म पापको नियृत्तिके लिये भगवश्नामका एक अंश ही पर्याप्त है, जैसे 'एम' का "य ' । इसने कै सम्पूणं नामय उच्चारण कर लिया । म्पे

समयक अर्थ ठीक परेका क्षण हो नहों है, वयोकिः मस्तेके क्षण जैसे कृच्छु-चाद्भायण आदि करनेके लिये जिधि नहों हो सकती, वैसे नामोच्चारणको

भौ नहं है। इसलिये 'ग्रिपमाण' शब्दका यह अभिष्नाय है कि अथ आगे इससे कोई पाप होनेकयी सम्फावना यहीं है।

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