४२४ * पुराणौ परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम् « [ संक्षिप्त भविष्यपुराणाडु
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“यमदैवत यमाय स्वाहा इस मनत्रसे घी, मधु और तिलसे आदि सभी नक्षत्रोंमें घी-मिश्रित आहूति देनी चाहिये ।
हवन करना चाहिये । इसी प्रकार कृत्तिकामें भी अग्रिके मन्त्रोंसे मुने ! ब्रह्माजीने यह बतलाया है कि विधिपूर्वक गायत्री-
हवन करना चाहिये । रोहिणीमें प्रजापतिके मनसे, मृगशिरामे मन्त्रद्वारा भी प्रायः एक सहस (१,०००) घृतकी आहुतियां
शीसे, पुनर्वसुमें दितिदेवीके लिये दूध और घी-मिश्रित आहुति देनेपर सम्पूर्ण ज्वरो एवं व्याधियोंका सदः उपशमन हो सकता
अदान करनी चाहिये। पुष्यमें यृहस्पतिके मन्त्रोंसे घी और है। क्योकि गायत्रीका अर्थ ही है कि गान, हवन, पूजनद्वारा
दूधद्वारा, आश्लेषाके देवता सर्प हैं, अतः बड़के दूध और
घीसे मिश्रित आहूति देनी चाहिये। इसी प्रकार स्वाती, मूल
ज्राण करनेवाली ।
(अध्याय १४५)
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अपराधशतशझमन-त्रत
महर्षि वसिष्ठजीने राजा इक्ष्वाकुसे कहा--राजन् !
अब आपको एक ब्रत बतला रहा हूँ, जिससे महाफलकी
प्रापि होती है और सैकड़ों दोष--पापोंका शमन हो जाता है।
राजा इक्ष्वाकुने पूछा--ब्रह्मन्! मुख्यरूपसे सौ
अपराध या दोष-पाप कौन-कौन हैं और वह वरत कौन-सा है,
जिसके अनुष्ठानमात्रसे उनकी शन्ति हो जाती है। इस ब्रते
किस देवताकी पूजा होती है और किस समय यह व्रत किया
जाता है, आप बतलानेकी कृपा करें।
महर्षि वसिष्ठ बोले--महाबाहो ! अपराधशतशमन-
ब्रतको सुनो, जिसका अनुष्ठान करनेमात्रसे मनुष्यको सभी
प्रकारकी कामनाएँ, और युक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं। कृत-अकृत
सभी गुरुतर पाप रुईकी रशिके समान जलकर भस्म हो जाते हैं ।
राजन् ! अब आप इन अपराधोकि नाम और लक्षणको सुर्नें--
अनाश्रमित्व--चारों आश्रमोंसे बाहर रहकर स्वच्छन्द नास्तिक-
वृत्ति अपनाना, अनग्नित -- अग्निहोत्र, हवन आदि सभी
कायो परित्याग, व्रतहीनता-- कोई भी सत्य, ब्रह्मचर्य और
एकादशी आदि ब्रतोंका पालन न करना, अदातृत्व-- कभी भी
कुछ भी अन्न, धन या आशीर्वाद आदि न देना, अशौच,
हिसा, चोरी, इन्द्रिय-परायगता, मनको वशम न रखना, क्रोध,
ईर्ष्या, द्वेष, दम्भ, शठता, पूर्तता, कटुभाषण, प्रमाद, स्त्री, पुत्र,
माता आदिका पालन न करना, अपूज्यकी पूजा करना, श्राद्धका
त्याग, जप न करना, बलिवैश्वदेव तथा पशयज्ञका त्याग,
संध्या, तर्पण, हवन आदि नित्यकर्मोंका परित्याग, अग्रिका
बुझाना, ऋतुकालके बिना ही खी-सम्पर्क, पर्व आदियें स््री-
सहवास, चुगली, दूसरेकी खीके साथ गमन, वेश्यागामिता,
अपात्रको दान देना, अल्पदान, अन्त्यजसङ्ग, माता-पिताकी
सेवा न करना, सबसे झगड़ा करना, पुराण और स्मृतियोंका
अनादर करना, अभक्ष्य-भक्षण, स्वामि-द्रोह, निना विचारे
कार्य करना, कृषि-कार्य करना, भायसिंग्रह, मनपर विजय न
लेकर वापस न करना, चित्रकर्म करना, सदा कामनाओंका दास
होना, भार्या, पुत्र एवं कन्या आदिकः विक्रय करना, पशु-
मैथुन, इन्यनार्थ वृक्ष काटना, विलोम पानी आदि डालना,
तड़ागादिके जलको दूषित करना, विद्याकय विक्रय, स्ववृत्तिका
परित्याग, याचना, कुमित्रता, स्ी-वध, गो-वध, मित्र-वध,
भ्रूण-हत्या, पौगेहित्य, दूसरेका अन्न ओर शूद्रके अन्नको ग्रहण
करना, शृद्रका अग्निकर्म सम्पन्न करना, विधिविहीन कर्मका
निष्पादन, कुपुत्रता, विद्वान् होनेपर याचना करना, वाचालता,
प्रतिग्रह लेना, श्रौत-संस्कारहीनता, आर्त व्यक्तिका दुःख दूर न
पातकियोंके साथ सम्बन्ध स्थापित करमा--ये अपराध हैं।
अन्य तत्त्ववेत्ताओने भी विविध प्रकारके अपराधोंको कहा है।
अनघ ! भगवान् सत्येशकी पूजा करनेसे तत्क्षण सभी
प्रकारके अपराध नष्ट हो जाते हैं। मुनष्योंद्वारा ब्रत और पूजन
करनेसे भगवान् स्वयं उसके वशमें हो जाते है । ये जगत्यति
भगवान् विष्णु लक्ष्मीके साथ सत्यरूपी ध्वजके ऊपर स्थित
रहते हैं। इनके पूर्वमे कामदेव, दक्षिणमें नूसिंह भगवान्,
पश्चिमे भगवान् कपिल, उत्तरमें बराह तथा ऊर्ध्वमें अच्युत
स्थित रहते हैं। इन्हें ही ब्रह्मपक्तक जानना चाहिये। ये ही
सत्येश हैं, इन्हींकी सदैव पूजा करनी चाहिये। ये सत्येश