मंदन पुनर्भव वर्णेन | [ ४३१
रति को कठाक्ष के द्वारा आनन्दित कर रहा था। वह रति भी महान
आनन्द के सागर में मग्न होकर अपने स्वामी को देखती हुई आनम्द को:
प्राप्त हुई थी ।४७। महाराज्ञी उन्न दोनों रति और कामदेव को भक्ति से
निर्भर मानस वाले तथा परम प्रसन्न अन्तरात्मा वाले देखकर मन्दस्मित
मुखकमल वाली हुईं थी और लज्जा से नम्नमुखी उस रति को देखकर
श्यामला से यह बोली थी ।४८। है श्यामले ! इसको स्नान कराकर वस्त्रों
और कांची आदि भूषणों से भूषित करके पूर्व की ही भाँति शीघ्र यहां
लाभो ।४६।
तदाज्ञां शिरसा धृत्वा श्यामा सर्व तथाकरोत् ।
ब्रह्मषिभिवंसिष्ठादं वेवाहिकविधानतः ॥५०
कारयामास दम्पत्योः पाणिग्रहगमंगलम् ।
अप्सरोभिश्च सर्वाभिनृ त्यगीतादिसंयुतम् ॥ ५ १
एतद्हश वा महेन्द्राद्या ऋषयश्च तपोधनाः ।
साधुसाध्विति शंसंतस्तुष्टुवुललितांबिकाम् ॥५२
पुष्पवृर्धि विमुऊचन्त: सर्वे सन्तुष्टमानसा: ।
बभुवुस्ती महाभक्तथा प्रणम्य ललितेश्वरीम् ॥५३
तत्पाश्वें तु समागत्य बद्धांजलिपुटौ स्थितौ ।
अथ कंदपंवोरोऽपि नमस्कृत्य महेश्वरीम् ।
व्यज्ञापयदिदं वाक्यं भक्तिनिर्भरमानसः ॥५४
यह्ग्ध मौ शनेत्र ण वधूर्मे ललितांबिके ।
तत्त्वदीयकटाक्षस्य प्रसादात्पुन रागतम् ।।५५
तव पुत्रोऽस्मि दासोऽस्मि क्वापि कृत्ये नियु क्ष्व माम् ।
इत्युक्ता परमेशानौ तमाह मकरध्वजम् ।(५६
उस महाराज्ञी को आज्ञा को शिर पर धारण करके उस श्यामला ने
सब कुछ वैसा ही कर दिया था । वसिष्ठ आदि ब्रह्मषियों के द्वारा वैवाहिक
विधान किया गया था ।५०। उन दम्णत्तियों का पाणिग्रहण का मज्भल किया
गया जो सभी अप्सराओं केद्वारा नृत्य और गीत आदि से समन्वित था।
।५१। यह सब कुछ देखकर महेन्द्र आदि देवगण तथा तपोधन ऋषियों ने