पे० ३ सृ० ५१ ६७
नष्ट करने वाले तथा मस्तं के साथ जल की वर्षा करने वाले है । अत्यन्त व्यापक यश-सम्पन्न इन्द्रदेव हमारे यज्ञ
में आकर हविरूप अन्नं से तृप्त हो ओर हमारी हवियाँ उनके शरीर को प्रवृद्ध करें ॥१ ॥
२८९७. आ ते सपर्यू जवसे युनज्मि ययोरनु प्रदिवः श्रुष्टिमाव: ।
इह त्वा धेयुर्हरयः सुशिप्र पिबा त्व१स्य सुषुतस्य चारोः ॥२ ॥
हे इद्धदेव आपके इस यज्ञ में शीघ्र आने के लिए उत्तम परिचर्या करने वाले अश्रों को रथं से योजित करते
है, जिनसे आप हमारे संरक्षण के लिए आएँ । वे अश्च आपको हमारे यज्ञ के लिए धारण करें । उत्तम शिरस्त्राण
धारक हे इन्द्रदेव ! आप भलीप्रकार इस अभिषुत सोम का पान करें ॥२ ॥
२८९८. गोभिर्मिमिक्षुं दधिरे सुपारमिन्द्रं ज्यैष्ठ्याय धायसे गृणानाः ।
मन्दानः सोमं पपिवां ऋजीषिन्त्समस्मभ्यं पुरुधा गा इषण्य ॥३ ॥
स्तोताओं की सप्रस्त कामनाओं को पूर्ण कर उनके दुःखों का निवारण करने वाले इन््रदेव के लिए गो दुग्धादि
मिश्रित सोमरस समर्पित करते है । वे हमें श्रेष्ठतम पोषण प्रदान करें । हे सोमपायी इन्द्रदेव ! हर्ष से उल्लसित
होकर आप सोम का पान करें और हमारे लिए विविध भाँति की गौओं (पोषक-शक्तियो ) को प्रेरित करें ॥३ ॥
२८९९. इमं कामं मन्दया गोभिरचै्चनद्रवता राधसा पप्रथश्च ।
स्वर्यवो मतिभिस्तुभ्यं विप्रा इन्द्राय वाहः कुशिकासो अक्रन् ॥४ ॥.
हे इनद्रदेव !गौ, अश्च ओर धन-ऐश्वर्य प्रदान करके आप हमारी कामनाओं को पूर्ण करे एवं प्रसिद्धि प्रदान
करें (स्वर्गादि सुख की अभिलाषा से मेधावी कुशिक वंशजो ने विचारपूर्वक आपके लिए स्तोतरो कौ रचना की है ॥४ ।
२९००. शुनं हुवेम मघवानमिन्द्रमस्मिन्भरे नृतमं वाजसातौ ।
शृण्वन्तमुग्रमूतये समत्सु घ्नन्तं वृत्राणि सज्जितं धनानाम् ॥५ ॥
हम अत्र प्राप्ति के लिए किये जाने वाले अपने इस संग्राम में ऐश्वर्यवान् इन्द्रदेव को संरक्षण प्राप्ति के लिए
बुलाते है । वे इन्द्रदेव पवित्रता प्रदान करने वाले, मनुष्यों के नियामक और हमारौ स्तुति को सुनने वाले हैं । वे
उग्र, वीर्, युद्धों में शत्रुओं का वध करने वाते और धनो के विजेता हैं ॥५ ॥
[ सूक्त - ५१ |
[ऋषि - विश्वामित्र गाचिन । देवता - इन्द्र | छब्द - त्रिष्टुप् ; १-३ जगती ; १०-१२ गायत्री । |
२९०१. चर्षणीधृतं मघवानमुक्थ्य९ मिन्द्रं गिरो बृहतीरभ्यनूषत ।
वावृधानं पुरुहूतं सुवृक्तिभिरपर्त्यं जरमाणं दिवेदिवे ॥९॥
सभी मानवो के पोषक, ऐश्वर्यशाली, ख्यातियुक्त, वर्धमान, अमर तथा अनेको स्तोत्र से प्रतिदिन प्रशंसित
होने वाले इन्द्रदेव की हम अनेक प्रकार से स्तुति करते हैं ॥१ ॥
२९०२. शतक्रतुमर्णवं शाकिनं नरं गिरो म इन्द्रमुप यन्ति विश्वत:।
वाजसनिं पूर्भिदं तूर्णिमप्तुरं धामसाचमभिषाचं स्वर्विदम् ॥२ ॥
वे इनद्रदेव शत (सैकड़ों ) यज्ञ सम्पादक, जल से युक्त, सामर्थ्यवान् मरुतो के नियामक, अन्न प्रदाता, शत्रु पुरो
के भेदक, शीघ्र गमन करने वाले, जल के प्रेरक, तेजस्विता सम्पन्न शत्रुओं के पराभवकर्ता और स्वर्गीय सुख-प्रदाता
है । उन इन्द्रदेव को हमारी स्तुतियाँ सब ओर से प्राप्त होती है ॥२ ॥