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{उत्तरपर्व ९४४। १२--२४)
--मैं तुम्हे अभिषिक्त कर रहा हूँ, पावमानी ऋचाओंकी
अधिष्ठातुदेवता तुम्हें पवित्र करे । महाराजा वरुण, भगवान्
सूर्य, बृहस्पति, इनदर, वायु तथा सप्तर्षिगण अपना-अपना तेज
तुमे आधान कर । तुम्हारे केशो, सीमन्त, मस्तक, ललाट,
कानों एवै आँखोंमें जो भी दौर्भाप्य है, उसको ये अप् देवता
नष्ट करें।
अनन्तर कुशाको दक्षिण हाथमे प्रहण कर सरसोके
तेलसे हवन करे। पित, सम्मित, साल, क्यलकंटक, कृष्पाण्ड
तथा राजपुत्रके अन्तमे स्वाहा समन्वित कर हवन करे ।
चतुष्पथपर कुश बिछाकर सूपमें इनके निमित्त बलि-ैवेदय
अर्पण करे । खिले हुए फूल तथा दूवसि अर्घ्य दे । मण्डले
आर््य प्रदानकर विनायककी माता अम्विकर्की पूजा करे और
यह प्रार्थना करे-- मातः ! आप मुझे रूप, यश, ऐश्वर्य, पुत्र
तथा धन प्रदान करें और मेरी समस्त कामनाओंको पूर्ण
करें'। अनन्तर सफेद वश, सफेद माला और शेत चन्दन
चारणकर ब्राह्मणको भोजन कराये और गुरुको दो वस्त्र प्रदान
करे । इस प्रकार ग्रहोंकी और विनायककी विधिपूर्वक पूजा
करेसे सम्पूर्णं कमि फलकी प्राप्ति होती है और लक्ष्मीकी
भी प्राप्ति हो जाती है। भगवान् सूर्य, कार्तिकेय एवं
महागणपतिकी पूजा करके मनुष्य सभी सिद्धियोंको प्राप्त कर
लेता है।
(अध्याय १४४)
नक्षत्रार्चन-विधि (रोगावलिचक्र )
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं--राजन्! एक बार
कौशिकमुनि अग्निहोत्र करनेके बाद सुखपूर्वक बैठे हुए थे।
उसी समय महर्षि गर्गने उनसे पूछा-- ब्रह्मन् ! बंदीगृहमें
निरुद्ध हो अथवा विषम परिस्थितियोंमें अवरुद्ध, दस्यु, शत्रु
अथवा दिख पशुओंसे घिरा हो तथा व्याधियोंसे पीड़ित तो ऐसे
व्यक्तिकी कैसे मुक्ति हो सकती है । इसे आप मुझे बतत्प्रये ।'
कौशिक मुनि बोले--गर्भाधानके समय, जन्म-
नक्षत्रमें, मृत्यु-सम्बन्धी ज्ञान होनेपर जिसको रोग -व्याधि उत्पन्न
हो जाती है, उसे कष्ट तो होता ही है, उसकी मृत्यु भी सम्भाव्य
है। यदि कृत्तिका नक्षत्रमें कोई व्याधि होती है तो वह पीड़ा नौ
शाततक बनी रहती है। रोहिणीमें लीन राततक, मृगशिरामें पाँच
रातत्क और यदि आद्रमिं रोग उत्पन्न हो तो वह व्याधि
प्राण-वियोगिनी हो जाती है। पुनर्वसु और पुष्य नक्षत्रमें सात
रात, आश्लेषामें नौ रात, मधामें यीस दिन, पूर्वाफाल्गुनीमे दो
मास, उत्तराफाल्गुनीमें तीन पक्ष (४५ दिन), हस्तमें
स्वल्पकालिक पीड़ा, चित्रामें आधे मास, स्वातीमें दो मास,
विशाखामें बीस दिन, अनुराधामें दस दिन, ज्वेष्ठामें आधे मास
और मूलमें मृत्यु हो जाती है। पूर्वाषाढ़ामें पंद्रह दिन,
उत्तराषाद्में बीस दिन, श्रवणमें दो मास, घनिष्ठामें आधा
मास, शतभिषमें दस दिन, पूर्वाभाद्रपदमें नौ दिन, उत्तराभाद्र-
पदमे पंद्रह दिन, रेवतीमे दः . था अश्विनीमें एक दिन-रात
कष्ट होता है।
मुने ! कुछ विशिष्ट नक्षत्रोमें व्याधि उत्पन्न होनेपर
मनुष्यके प्राणतक भी चले जाते हैं', इसमें संदेह नहीं। इसकी
विशेष जानकारीके लिये ज्योतिषियोंसे भी परामर्श करना
चाहिये ।
रोगके प्रारम्भिक नक्षत्रका ज्ञान हो जानेपर उस नक्षत्रके
अधिदेवताके निमित्त निर्दिष्ट द्रब्योंद्राणा हवन करनेसे
रोग-व्याधिकी शान्ति हो जाती है। व्याधि नक्षत्रके किस
चरणमें उत्पन्न हुई है, इसका ठीक पता लगाकर आपत्तिजनक
स्थितिरयोमि व्याधिसे मुक्तिके लिये उस नक्षत्रके स्वामीके मज्रोंसे
अभीष्ट समिधाद्वाया हवन करना चाहिये । अधिनी नक्षत्रमें क्षीरी
(दूधवाले--बट, पीपल, खिरनी आदि) वृक्षोकी समिधासे
अथिनीकुमारेकि मन्त्रोंसे हवन करना चहिये । भरणीमे
१-रूप॑ देहि यशो देहि भग॑ भगवति देहि ये । पुत्रान् देहि धनै देहि सर्वकामांझ देहि ते ॥ (१४४।२१)
२-ज्योतिर्विवन्थ आदि ज्यौतिष -प्थेके अनुसार आद्र, आश्केषा, पूः, स्तो, ज्य. पूर्वाफड़ा और पूः भाः में मुतु भय होता
है या बम््ी स्थिर दो जाती है। अतः इसको निवुत्तिके ल्विये नद् यन्त्र आदिक्य जप -हवन करना चाहिये ।