* अग्निपुराण *
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गयी हैं तथा शिशिरसे ग्रीष्मपर्यन्त तीन
ऋतुओंको (ओषध लेनेके निमित्त) "आदान
(काल) ' कहा गया है । विसर्ग-कालको "सौम्य"
और आदानकालको ' आग्नेय ' कहा गया है वर्षा
आदि तीन ऋतु्ओमिं चलता हुआ चन्द्रमा ओषधियोंमें
क्रमशः अम्ल, लवण तथा मधुर रसोंको उत्पन्न
करता है । शिशिर आदि तीन ऋतुओंमें विचरता
हुआ सूर्य क्रमशः तिक्त, कषाय तथा कटु रसोंको
बढ़ाता है। राते ज्यों-ज्यों बढ़ती हैं, त्यों-त्यों
ओषधियोंका बल बढ़ता है॥ २२--२८॥
जैसे-जैसे रातें घटती हैं, वैसे-वैसे मनुष्योंका
बल क्रमश: घटता है। रातमें, दिनमें तथा
भोजनके बाद, आयुके आदि, मध्य और अवसान-
कालमें कफ, पित्त एवं वायु प्रकुपित होते हैं।
प्रकोपके आदिकाले इनका संचय होता है तथा
प्रकोपके बाद इनका शमन कहा गया है।
विप्रवर! अधिक भोजन ओर अधिक उपवाससे
तथा मल-मूत्र आदिके वे्गोको रोकनेसे सभी रोग
उत्पन्न होते हैं। इसलिये पेटके दो भागोंको
अनसे तथा एक भागको जलसे पूरा करे। अवशिष्ट
एक भागको वायु आदिके संचरणके लिये रिक्त
रखे। व्याधिका निदान तथा विपरीत औषध
करना चाहिये, इन सबका सार यही है, जो मैंने
बतलाया है॥ २९--३३ २॥
नाभिके ऊपर पित्तका स्थान है तथा नीचे
श्रोणी एवं गुदाको वातका स्थान कहा गया है।
तथापि ये सभी समस्त शरीरमें घूमते हैं। उनमें
भी वायु विशेषरूपसे सम्पूर्ण शरीरमें संचरण
करती है। (इस विषयका सुस्पष्ट वर्णन सुश्रुतमें
इस प्रकार है-दोषस्थानान्यत ऊर्ध्वं वक्ष्याम:।
तत्र समासेन वातः श्रोणिगुदसंश्रयः, तदुपर्यधो
नाभेः पक्राशयः, पक्रामाशयमध्यं पित्तस्य,
आमाशयः श्लेष्मणः । (सुश्रुत, सूत्र- स्थान अध्याय
२१, सूत्र) “इसके बाद दोषोंके स्थानोंका वर्णन
करगा - उनमें संक्षेपसे (रहस्य यह है कि)
वायुका स्थान श्रोणि एवं गुदा है, उसके ऊपर एवं
नाभि (ग्रहणी) -के नीचे पक्ताशय है, पक्वाशय
एवं आमाशयके मध्ये पित्तका स्थान है । श्लेष्माका
स्थान आमाशय है ') ॥ ३४-३५॥
देहके मध्यमें हदय है, जो मनका स्थान है ।
जो स्वभावतः दुर्बल, थोड़े बालवाला, चञ्चल,
अधिक बोलनेवाला तथा विषमानल है- जिसकी
जटराग्रि कभी ठीकसे पाचनक्रिया करती है,
कभी नहीं करती तथा जो स्वप्रमे आकाशे उडनेवाला
है, वह वात प्रकृतिका मनुष्य है । समय (अवस्था) -
से पूर्व हौ जिसके वाल पकने-झरने लगे, जो
क्रोधी हो, जिसे पसीना अधिक होता हो, जो
मीठी वस्तुं खाना पसंद करता हो और स्वप्रे
अग्निको देखनेवाला हो, वह पित्त प्रकृतिका है ।
जो दृढ़ अड्रोंवाला, स्थिरचित्त, सुन्दर, कान्तियुक्त,
चिकने केश तथा स्वप्रे स्वच्छ जलको देखनेवाला
है, वह कफ प्रकृतिवाला मनुष्य कहा जाता है ।
इसी प्रकार तामस, राजस तथा सात्त्विक--तीन
प्रकारके मनुष्य होते हैँ ॥ ३६--३९॥
मुनिश्रेष्ठ! सभौ मनुष्य वात, पित्त और
कफवाले हैँ । मैथुनसे ओर भारी काममें लगे
रहनेसे रक्तपित्त होता है । कदननके भोजनसे तथा
शोकसे वायु कुपित होती है । द्विजोत्तम ! जलन
पैदा करनेवाले पदार्थो तथा कटु, तिक्त, कषायरससे
युक्त पदार्थोकि सेवनसे, मार्गमे चलनेसे तथा भयसे
पित्त प्रकुपित होता है । अधिक जल पोनेवालों,
भारी अनन भोजन करनेवालों, खाकर तुरंत सो
जानेवालों तथा आलसियोंका कफ प्रकुपित होता
है । उत्पन्न हुए वातादि रोगोंकों लक्षणोंसे जानकर
उनका शमन करे ॥ ४० -४३॥
अस्थिभङ्ग (हड्डियोंका टूटना या व्यथित