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* अध्याय २८० ०

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गायत्री-मन्त्रसे हवन करनेपर मनुष्य सब रोगोंसे

छूट जाता है। जिस नक्षत्रमें रोग पैदा हो, उसी

शुभ नक्षत्रमें स्नान करे तथा बलि दे। भगवान्‌

विष्णुका स्तोत्र 'मानस-रोग' आदिको हर लेनेवाला

है। अब वात, पित्त एवं कफ--इन दोषोंका तथा

रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, शुक्र आदि

धातुओंका वर्णन सुनो॥ १--६॥

सुश्रुत! खाया हुआ अन पक्काशयसे दो

भागोंमें विभक्त हो जाता है । एक अंशसे वह किट

होता है और दूसरे अंशसे रस । किट्टभाग मल है,

जो विष्ठा, मूत्र तथा स्वेदरूपर्मे परिणत होता है ।

वही नेत्रमल, नासामल, कर्णमल तथा देहमल

कहलाता है । रस अपने समस्त भागसे रुधिररूपमें

परिणत हो जाता है। रुधिरसे मांस, मांससे मेद,

मेदसे अस्थि, अस्थिसे मज्जा, मज्जासे शुक्र,

शुक्रसे राग (रंग या वर्ण) तथा ओजस्‌ उत्पन

होता है। चिकित्सकको चाहिये कि देशकाल,

पीडा, बल, शक्ति, प्रकृति तथा भेषजके बलको

समझकर तदनुकूल चिकित्सा करे । ओषध प्रारम्भ

करनेमें रिक्ता (४, ९,१४) तिथि, भौमवार एवं

मन्द्‌, दारुण तथा उग्र नक्षत्रको त्याग देवे। विष्णु,

गौ, ब्राह्मण, चन्द्रमा, सूर्य आदि देवोंकी पूजा

करके रोगीके उद्देश्यसे निम्नाङ्कित मन्त्रका उच्चारण

करते हुए औषध प्रारम्भ करें--॥ ७--१२॥

बहादक्षाश्रिरद्रेद्रभूचद्धाकांनिलानला:._

ऋषयश्नौषधीग्रामा भूतसंघाश्च पान्तु ते॥

रसायनमिवर्षीणां देवानाममृतं यथा।

सुधैवोत्तमनागानां भैषज्यमिदमस्तु ते॥

"ब्रह्मा, दक्ष, अश्विनीकुमार, रुदर, इन्द्र, भूमि,

चन्द्रमा, सूर्य, अनिल, अनल, ऋषि, ओषधिसमूह

तथा भूतसमुदाय-ये तुम्हारी रक्षा करें। जैसे

ऋषियोकि लिये रसायन, देवताओकि लिये अमृत

तथा श्रेष्ठ नागोंके लिये सुधा ही उत्तम एवं

गुणकारी है, उसी प्रकार यह ओषध तुम्हारे लिवे

आरोग्यकारक एवं प्राणरक्षक हो ' ॥ १३-१४॥

देश-- बहुत वृक्ष तथा अधिक जलवाला देश

“अनूप' कहलाता है । वह वात ओर कफ उत्पन्न

करनेवाला होता है। जांगल देश 'अनूप' देशके

गुण-प्रभावसे रहित होता है। थोड़े वृक्ष तथा थोडे

जलवाला देश 'साधारण' कहा जाता है। जांगल

देश अधिक पित्त उत्पन्न करनेवाला तथा साधारण

देश मध्यमपित्तका उत्पादक है॥ १५-१६॥

बात, पित्त, कफके लक्षण--वायु रक्ष,

शीत तथा चल है। पित्त उष्ण है तथा कटुत्रय

(सोंठ, मिर्च, पीपली)पित्तकर हैं। कफ स्थिर,

अम्ल, स्तग्ध तथा मधुर है। समान वस्तुओंके

प्रयोगसे इनकी वृद्धि तथा असमान वस्तुओंके

प्रयोगसे हानि होती है। मधुर, अम्ल एवं लवण

रस कफकारक तथा वायुनाशक हैं। कट्‌, तिक्त

एवं कषाय रस वायुकी वृद्धि करते हैं तथा

कफनाशक हैं। इसी तरह कटु, अम्ल तथा लवण

रस पित्त बढ़ानेवाले हैं। तिक्त, स्वादु (मधुर)

तथा कषाय रस पित्तनाशक होते हैं। यह गुण या

प्रभाव रसका नहीं, उसके विपाकका माना गया

है। उष्णवीर्य कफनाशक तथा शीतवीर्यं पित्तनाशक

होते हैं। सुश्रुत! ये सब प्रभावसे ही वैसा कार्य

करते है ॥ १७ -२१॥

शिशिर, वसन्त तथा शरदमें क्रमशः कफके

चय, प्रकोप तथा प्रशमन बताये गये हैं। अर्थात्‌

कफका चय शिशिर-ऋतुर्मे, प्रकोप वसन्त-ऋतुमें

तथा प्रशमन ग्रीष्म-ऋतुमें होता है । सुश्रुत ! वायुका

संचय ग्रीष्मे, प्रकोप वर्षा तथा रात्रिये और

शमन शरदमें कहा गया है । इसी प्रकार पित्तका

संचय वर्षामें, प्रकोप शरद तथा शमन हेमन्तमें

कहा गया है । वर्षसि हेमन्तपर्यन्त (वर्षा, शरद्‌,

हेमन्त-ये) तीन ऋतुं " विसर्ग-काल ' कही

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