+ अध्याय २८१०५
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होना), मुखका कसैला स्वाद होना, मुँह सुखना, | हौ खानेकी कामना)-ये कफज व्याधिके लक्षण
जँभाई आना तथा रोएँ खड़े हो जाना- ये वायुजनित
रोगके लक्षण हैं। नाखून, आँखें एवं नस-नाडियोंका
पीला हो जाना, मुखमें कडुवापन प्रतीत होना,
प्यास लगना तथा शरीरम दाह या गर्मी मालूम
होना--ये पित्तव्याधिके लक्षण है॥ ४४-४५॥
आलस्य, प्रसेक (मुँहमें पानी आना), भारीपन,
मुँहका मीठा होना, उष्णकी अभिलाषा (धूपमें या
आगके पास बैठनेकी इच्छा होना या उष्णपदार्थोको
हैं। स्लिध और गरम-गरम भोजन करनेसे,
तेलकी मालिशसे तथा तैल-पान आदिसे वातरोगका
निवारण होता है। घी, दूध, मिश्री आदि एवं
चेन्द्रमाकी किरण आदि पित्तको दूर करता है।
शहदके साथ त्रिफलाका तैल लेने तथा व्यायाम
आदिसे कफका शमन होता है। सब रोर्गोकौ
शान्तिके लिये भगवान् विष्णुका ध्यान एवं पूजन
सर्वोत्तम ओषध है ॥ ४६--४८॥
इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'सर्वरोगहर ओकधियोंका वर्णन” नामक
दो सौ अस्सीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ २८०॥
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दो सौ इक्यासीवाँ अध्याय
रस आदिके लक्षण
भगवान् धन्वन्तरिने कहा--सुश्रुत! अब
मैं ओषधियोंके रस आदिके लक्षणों और
गुणोंका वर्णन करता हूँ, ध्यान देकर सुनो। जो
ओषधियोंके रस, बीर्य और विपाकको जानता
है, वही चिकित्सक राजा आदिकी रक्षा कर
सकता है॥ १॥
महाबाहो ! मधुर, अम्ल और लवण रस
चन्द्रमासे उत्पन्न कहे गये हैं। कटु, तिक्त एवं
कषाय रस अग्रिसे उत्पन्न माने गये हैं। द्रव्यका
विपाक तीन प्रकारका होता है--कट्, अम्ल और
लवणरूप। वीर्य दो प्रकारके कहे गये हैं--शीत
और उष्ण। द्विजोत्तम ! ओषधियोंका प्रभाव अकथनीय
है। मधुर, तिक्त ओर कषायरस “शीतवीर्य' कहे
गये हैं एवं शेष रस “उष्णवीर्य' माने गये हैं; किंतु
गुडूची (गिलोय) तिक्तरसवाली होनेपर भी
अत्यन्त वीर्यप्रद होनेसे उष्ण है॥ २--५॥
मानद! इसी प्रकार हरड़ कषायरससे युक्त
होनेपर भी “उष्णवीर्य' होती है तथा मांस
(जटामांसी) मधुररससे युक्त होनेपर भी “उष्णवीर्यं '
ही कहा गया है। लवण और मधुर--ये दोनों रस
विपाकमें मधुर माने गये हैं। अम्लोष्णका विपाक
भी मधुर होता है। शेष रस विपाकमें कटु हैं।
इसमें संशय नहीं है कि विशेष वीर्ययुक्त द्रव्यके
विपाकमें उसके प्रभावके कारण विपरीतता भी
हो जाती है; क्योकि शहद मधुर होनेपर भी
विपाकमें कटु माना गया है ॥ ६--८॥
द्रव्यसे सोलहगुना जल लेकर क्राथ करे।
प्रक्षिप्त द्रव्यसे चारगुना जल शेष रहनेपर (क्राथको)
छानकर पीवे। यह क्राथके निर्माणकी विधि है!
जहाँ क्राथकौ विधि न बतलायी गयी हो, वहाँ
इसीको प्रमाण जानना चाहिये ॥ ९॥
स्नेह (तैल या घृत) पाककी विधिमें स्रेहसे
* दो सौ इवयासो्वे अध्याये कथित "रस, वोर, विपाक एवं प्रभावका वर्णन ' विस्तारपूर्वक ' सुतरुतसंहिता 'के सूत्रस्थातके ४० एवं
४२ वे अध्यायॉमें तथा 'चरकसंहिता 'के सूत्रस््थानके २६ वें अध्याये है । तदनुसार ही यहाँका वर्णन है ।