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में० ५ सू० ३१ ३३

"नमुचि" असुर द्वारा बभु ऋषि की अपहत गौएँ (किरणे) बछड़ों (प्राणियों) से विलग होकर इधर-उधर भटक

रही थीं, तब अभिषुत सोम ने इनद्रदेव को हर्षित किया और इनद्रदेव ने अपने सहायक मरुतो के द्वारा गौओं को

बड़ों से युक्त किया ॥१० ॥

३८६५. यदीं सोमा बधरुधूता अषन्दन्नरोरवीदवृषभः सादनेषु ।

पुरन्दरः पपिवां इन्द्रो अस्य पुतनर्गवामददादुसियाणाम्‌ ॥११ ॥

जब वेप (धरण-पोषण करने वाले) के अभिषुत सोम ने इन्द्रदेव को प्रफुल्लित किया, तब यलवान्‌ इ्धदेव

ने संग्राम में घोर गर्जना की । शत्रु नगते के विध्वंसक इन्द्रदेव ने सोम पाने किया और बधु (ऋषि या अग्नि) को

दुधारू गौएँ पुन; पराप्त करायी ॥११ ॥

३८६६. भद्रमिदं रुशमा अग्ने अक्रन्गवां चत्वारि ददतः सहस्रा ।

त्रणञ्चयस्य प्रयता मघानि प्रत्यग्रभीष्म नृतमस्य नृणाम्‌ ९२ ॥

हे अग्निदेव ! ऋणज्वय राजा के अधोनस्थ रुशमवासियों ने हमे चार सहस्र गौएँ देकर कल्याणकारो काम

किया मनुष्यों के नेतृत्वकर्तता श्रेष्ठ ऋणज्वय (धनसंग्रह करने वालो) द्वारा दत्त ऐश्वर्थी को भी हमने ग्रहण

किया ॥१२ ॥

३८६७. सुपेशसं माव सृजन्त्यस्तं गवां सहस्रै रुशमासो अग्ने।

तीव्रा इन्द्रमममन्दुः सुतासोऽक्तोर्वयष्टौ परितक्म्यायाः ॥१३ ॥

हे अग्निदेव ! रुशमवासियों ने सहस्लो गौ ओं से युक्त ओर सुन्दर सुशोभित गृह हमें प्रदान किया है । रात्रि

के अवसान काल (उष; काल) मे हमने अभिषुत हुए तीक्षण सोम को निवेदित कर इन्द्रदेव को हर्षित किया ॥१३ ॥

३८६८. औच्छत्सा रात्री परितक्म्या याँ ऋणञ्चये राजनि रुशमानाम्‌।

अत्यो न वाजी रघुरज्यमानो बधुशचत्वार्यसनत्सहस्ना ॥ ९४ ॥

रुशमवासियो के राजा ऋणज्वय के पास जाने पर ऊन्धकारयुक्त रात्रि जो उपस्थित थी, उसके बीत जाने पर

बभ्रु क्षि ने निरंतर गतिमान्‌ अश्वो की तरह द्रुतगामिनी चार सहस्न गौओं को प्राप्त किया ॥१४ ॥

३८६९. चतुःसहत्रं गव्यस्य पश्च: प्रत्यग्र भीष्य रुशपेष्वग्ने ।

घर्मक्चित्तप्तः प्रवृजे य आसीदयस्मयस्तम्वादाम विप्राः ॥१५ ॥

है अग्निदेव ! हम मेधावी है । हमने रुशमवासियों से चार सहस्र गौ रूप पशुओं को प्राप्त किया और यज्ञ

में पशुओं के दुग्ध दुहने के निमित्त अधिक तपाये हुए (अधिक शुद्ध) स्वर्णमय कलश को भी प्राप्त किया ॥१५ ॥

[ सूक्त - ३१ ]

[ऋषि - अवस्यु आत्रेय । देवता - इन्द्र; ८ वें के तृतीय पाद के इन्द्र अधवा कुत्स; चतुर्थ पाद के इन्द्र अथवा

उशना; ९ इन्र एवं कुत्स । छन्द - त्रिष्टुप्‌ । ]

३८७०. इन्द्रो रथाय प्रवतं कृणोति यमध्यस्थान्मघवा वाजयन्तम्‌ ।

यथेव पश्च व्युनोति गोपा अरिष्टो याति प्रथमः सिषासन्‌ ॥९॥

ऐश्वर्यशालो इद्धदेव जिस रथ पर अधिष्ठित होते है, उसे वे अतिवेग से संचालित क़रते हैं । ग्वाला जिस

प्रकार अपने पशुओं को प्रेरित करता है, उसी प्रकार आप अपनी सेना को प्रेरित करते हैं । युद्ध में अहिंसित रहते

हुए आप शत्रुओं के धन की कामना करते हैं ॥१ ॥

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