+ अध्याय २२६ *
कज जज चज ॐ;
सिद्धि प्राप्त हो सकती है । भृगुनन्दन! पुरुषार्थ ही
दैवकौ सहायतासे समयपर फल देता दै । दैव
और पुरुषार्थं -ये दोनों मनुष्यको फल देनेवाले
हैं। पुरुषार्थद्रारा कौ हुई कृषिसे वर्षाका योग प्राप्त
होनेपर समयानुसार फलकी प्राप्ति होती है । अतः
धर्मानुष्ठानपूर्वक पुरुषार्थं करे; आलसी न बने और
दैवका भरोसा करके बैठा न रहे॥ १--४॥
साम आदि उपायोंसे आरम्भ किये हुए सभी
कार्य सिद्ध होते हैं। साम, दान, भेद, दण्ड,
माया, उपेक्षा ओर इन्द्रजाल-ये सात उपाय
बतलाये गये हैं। इनका परिचय सुनिये। तथ्य
ओर अतथ्य -दो प्रकारका "साम" कहा गया है।
उनमें ' अतथ्य साम ' साधु पुरुषोके लिये कलंकका
ही कारण होता है। अच्छे कुलमें उत्पन्न, सरल,
धर्मपरायण और जितेन्द्रिय पुरुष सामसे हौ बशमें
होते हैं। अतथ्य सामके द्वारा तो राक्षस भी
बशीभूत हो जाते हैं। उनके किये हुए उपकारोंका
वर्णन भी उन्हें वशमें करनेका अच्छा उपाय है।
जो लोग आपसमें द्वेष रखनेवाले तथा कुपित,
भयभीत एवं अपमानित हैं, उनमें भेदनीतिका
प्रयोग करे और उन्हें अत्यन्त भय दिखावे। अपनी
ओरसे उन्हें आशा दिखावे तथा जिस दोषसे वे
दूसरे लोग डरते हों, उसीको प्रकट करके उनमें
भेद डाले। शत्रुके कुटुम्बमें भेद डालनेवाले पुरुषकी
रक्षा करनी चाहिये। सामन्तका क्रोध बाहरी कोप
है तथा मन्त्री, अमात्य और पुत्र आदिका क्रोध
भीतरी क्रोधके अन्तर्गत है; अतः पहले भीतरी
कोपको शान्त करके सामन्त आदि शत्रुओंके
बाह्य कोपको जीतनेका प्रयत करे ॥ ५-११॥
सभी उपायोमिं ' दान ' त्र माना गया है। दानसे
इस लोक ओर परलोक - दोन सफलता प्राप्त
होती है। ऐसा कोई भी नहीं है, जो दानसे वशमें न
हो जाता हो। दानी मनुष्य ही परस्पर सुसंगठित
४२९
7
रहनेवाले लोगोंमें भी भेद डाल सकता है। साम, दान
और भेद-इन तीनोंसे जो कार्य न सिद्ध हो सके,
उसे "दण्ड कै द्वारा सिद्ध करना चाहिये। दण्डमें सब
कुछ स्थित है । दण्डका अनुचित प्रयोग अपना ही
नाश कर डालता है। जो दण्डके योग्य नहीं हैं,
उनको दण्ड देनेवाला, तथा जो दण्डनीय हैं, उनको
दण्ड न देनेवाला राजा नष्ट हो जाता है। यदि राजा
दण्डके द्वारा सबकी रक्षा न करे तो देवता, दैत्य,
नाग, मनुष्य, सिद्ध, भूत और पक्षी -ये सभी अपनी
मर्यादाका उल्लड्डन कर जायं । चकि यह उदण्ड
पुरुषोंका दमन करता और अदण्डनीय पुरुषोंको
दण्ड देता है, इसलिये दमन और दण्डके कारण
विद्वान् पुरूष इसे " दण्ड" कहते हैं॥ १२--१६॥
जब राजा अपने तेजसे इस प्रकार तप रहा हो
कि उसकी ओर देखना कठिन हो जाय, तब वह
"सूर्यवत्" होता है। जब वह दर्शन देनेमात्रसे
जगत्को प्रसन्न करता है, तब “चन्धतुल्य' माना
जाता है। राजा अपने गुप्तचरोंके द्वारा समस्त
संसारमें व्याप्त रहता है, इसलिये वह “वायुरूप'
है तथा दोष देखकर दण्ड देनेके कारण ' सर्वसपर्थ
यमराज ' के समान माना गया है। जिस समय वह
खोरी बुद्धिवाले दुष्टजनकों अपने कोपसे दग्ध
करता है, उस समय साक्षात् 'अग्निदेव'का रूप
होता है तथा जब ब्राह्मणोंको दान देता है, उस
समय उस दानके कारण वह धनाध्यक्ष 'कुबेर-
तुल्य" हो जाता है। देवता आदिके निमित्त घृत
आदि हविष्यकौ घनी धारा बरसानेके कारण वह
“वरुण' माना गया है। भूपाल अपने "क्षमा!
नामक गुणसे जब सम्पूर्ण जगत्कों धारण करता
है, उस समय “पृथ्वीका स्वरूप" जान पड़ता है
तथा उत्साह, मन्त्र और प्रभुशक्ति आदिके द्वारा
वह सबका पालन करता है, इसलिये साक्षात्
* भगवान् विष्णु" का स्वरूप है ॥ १७--२०॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें " सामादि उपायोका कथन” नामक
दो सौ छग्बीसवाँ अध्याय पूर हुआ॥ २२६ ॥
~+