पातालखण्ड ] « यज्ञ-सम्बन्धी अश्चका छोड़ा जाना, श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये उपदेश करना «+
मूल अथवा फल आदिके द्वारा अतिधिका सत्कार करना
चाहिये। आया हुआ अतिथि सत्कार न पाकर जिसके
घरसे निराञ् स्पैट जाता है, वह गृहस्थ जीवनभरके
कमाये हुए पुण्यसे क्षणभरमें वंचित हो जाता है। 7
गृहस्थको उचित है कि वह बलिलवैश्वदेव-कर्मके द्वारा
देवताओं, पितरों तथा मनुष्योंको उनका भाग देकर हष
अन्नका भोजन करे, वही उसके लिये अमृत है। जो
केवल अपना पेट भरनेयाला है--जो अपने ही लिये
भोजन बनाता और खाता है, वह पापका ही भोजन
करता है। तेलमें षष्ठौ ओर अष्टमीको तथा मासमे सदा
ही पापका निवास है। चतुर्दशीको क्षौर-कर्म तथा
अमावस्याको स्ी-समागमका त्याग करना चाहिये । ‡
रजस्वला -अवस्थामे ख्रीके सम्पर्कसे दूर रहे । पत्नीके
साथ भोजन नं करे । एक चस पहनकर तथा चटाईके
आसनपर बैठकर भोजन करना निषिद्ध दै । अपमेमें
केजकी इच्छा रखनेवाले श्रेष्ठ पुरुषको भोजन करती हुई
खीकी ओर नहीं देखना चाहिये । मुँहसे आगको न पके,
नंगी स्त्रीकी ओर दृष्टि न डाले । बछड़ेको दूध पिलाती
हुई गौको न छेड़े। दूसरेको इन्द्र-धनुष न दिखावे । रातमें
दही खाना सर्वथा निषिद्ध है । आगमे अपने पैर न सेके,
उसमे कोई अपवित्र वस्तु न डाले । किसी भी जीवकी
हिंसा तथा दोनों सन्ध्याओंके समय भोजन न करे।
रात्रिकों खूब पेट भरके भोजन करना उचित नही है ।
पुरुषको नाचने, गाने ओर बजानेमें आसक्ति नहीं रखनी
चहिये । काँसेके बर्तनमे पैर धुल्यना निषिद्ध है । दूसरेके
पहने हुए कपड़े और जूते न धारण करे । फूटे अथवा
दूसरेके जूठे किये हुए बर्तनमे भोजन न करे, भीगे पैर
न सोये। हाथ और मुँहके जूठे रहते हुए कहीं न जाय ।
सोते-सोते न खाय । उच्छिष्ट-अवस्थामें मस्तकका स्पा
न करे। दूसरोंके गुप्त भेद न खोले। इस प्रकार
गृहस्थ-धर्मका समय पूरा करके वानप्रस्थ-आश्रममें
प्रवेश करे । उस समय इच्छा हो तो वैराग्यपूर्वक स्के
साथ रहे, अथवा ख्त्रीकों साथ न रखकर उसे पुत्रोंके
अधीन सौंप दे। वानप्रस्थ -धर्मका पूर्ण पालन करनेके
पश्चात् विरक्त हो जाय--संन्यास ले ले।
वात्यायनजी ! उस समय महर्षियोंने उपर्युक्त
प्रकारसे अनेकों धर्मॉंका वर्णन किया तथा सम्पूर्ण
जगत्के महान् हितैषी भगवान् श्रीरामने उन सबको
ध्यानपूर्वक सुना ।
(णी औ या
यज्ञ-सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी
रक्षाके लिये झन्रुघ्नको उपदेश करना
शोषजी कहते हैं--मुने ! इस प्रकार भगवान्
श्रीराम ऋषियोंके मुखसे कुछ कालतक धर्मकी व्याख्या
सुनते रहे; इतनेमें वसन्तका समय उपस्थित हुआ जब
कि महापुरुषोंके यज्ञ आदि शुभ कमोंका प्रारम्भ होता है।
बह समय आया देख बुद्धिमान् महर्षि वसिष्ठने सम्पूर्ण
जगत्के सम्राट् श्रीरामचन्द्रजीसे यथोचित वाणीमें
कडा -- ' महाबाहु रघुनाथजी ! अब आपके लिये वह
समय आ गया है, जब कि यज्ञके लिये निश्चित किये हुए
अश्वकी भत्रभांति पूजा करके उसे पृथ्वीपर भ्रमण
करनेके लिये छोड़ा जाय । इसके लिये सामग्री एकत्रित
हो, अच्छे-अच्छे ब्राह्मण बुलाये जार्यै तथा स्वयं आप ही
उन ब्राह्मणोंकी यथोचित पूजा करें। दीनों, अंधों और
दुःखिर्योका विधिवत् सत्कार करके उन्हें रहनेको स्थान दें
और उनके मनमें जिस वस्तुके पानेकी इच्छा हो, वही
# याणिज्यं नृपतेः सेवा वेदानध्ययने तथा । कुवियाह:
क्रियालोप:.. कुलूपातनहेतव: ॥ (९ । ४९)
† अनर्चितोऽतिथिरगेहाद् भग्रादे यस्य गच्छति । आजन्मसक्िितात् पुण्यात् क्षणात् स हि बहिर्भवेत् ।॥ (९ । ५१)
‡ षष्म्योर्विदोत् पाप तैले मांगे सदैव हि । चतुर्दश्यौ तथधामायौ त्वजेत॒कषुरमङ्गनाम् ॥ (९ । ५३)