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आये । श्रीरघुनाथजीने बड़े आनन्दके साथ उठकर उनका

स्वागत किया ओर उन्हे प्रणाम करके अर्घ्वं तथा आसन

आदि देकर उन सबकी विधिवत्‌ पूजा की । फिर गौ और

सुवर्ण निवेदन करके वे बोले--'महर्षियो । मेरे बड़े

भाग्य है, जो आपके दर्शन हुए।'

होषजी कहते है-- ब्रह्मन्‌ ! इस प्रकार जब वहाँ

बड़े-बड़े ऋषियोंका समुदाय एकत्रित हुआ तो उनमें वर्ण

और आश्रमके अनुकूल धर्मविषयक चर्चा होने लगी ।

वात्स्यायनजीने पूछा--भगवन्‌ ! वहाँ धर्मके

सम्बन्धमें क्या-क्या बातें हुईं? कौन-सी अद्भुत बात

बतायी गयी ? उन महात्माओनि सब स्त्रेगोपर दया करके

किस विषयका वर्णन किया ?

चोषजीने कहा--मुने !

महापुरुषोंमें.. श्रेष्ठ

दह्मरथनन्दन भगवान्‌ श्रीरामने सब सुनियोंको एकत्रित

देखकर उनसे समस्त वर्णो ओर आश्रमोके धर्म पूछे।

श्रीरघुनाथजीके पूछनेपर उन महर्षियोंने जिन-जिन महान्‌

गुणकारी धर्मोका वर्णन किया, उन सबको मैं विधिपूर्वक

* अर्चयस्व हषीकेदौ यदीच्छसि परे पदम्‌ «

[ संक्षिप्त पच्चपुराण

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ऋषि बोले ब्राह्मणको सदा यज्ञ करना और वेद

पढ़ाना आदि कार्य करना चाहिये। वह ब्रह्मचर्य-

आश्रममें वेदोंका अध्ययन पूर्ण करके इच्छ हो तो

विरक्त हो जाय और यदि ऐसी इच्छा न हो तो

गृहस्थ-आश्रममें प्रवेश करे । नीच पुरुषोंकीा सेवासे

जीविका चलाना ब्राह्मणके लिये सदा त्याज्य है । वह

आपत्तिमें पड़नेपर भी कभी सेवा-वृततिसे जीवन-निर्वाह

नक्रे। .

सत्तान-प्राप्तिको इच्छासे ऋतुकालमें अपनी पत्नीके

साथ समागम करना उचित माना गया है। दिनमें ख्नीके

साथ सम्पर्क करना पुरुषोंकी आयुको नष्ट करनेवाल्म्र है।

श्राद्धका दिन और सभी पर्व स्नी-समागमके लिये

निषिद्ध हैं, अतः बुद्धिमान्‌ पुरुषोंको इनका त्याग करना

चाहिये। जो मोहबज्ञ उक्त समयमें भी स्के साथ

सम्पर्क करता है; वह उत्तम धर्मसे भ्रष्ट हो जाता है। जो

पुरुष केवल ऋतुकालमें स्त्रीके साथ समागम करता है

तथा अपनी ही पत्नीमें अनुराग रखता है [परायी ख्रीकी

ओर कुदृष्टि नहीं डालता], उस उत्तम गृहस्थको इस

जगत सदा ब्रह्मचारी ही समझना चाहिये। ख्रीके

रजस्वत्प्र होनेसे लेकर सोलह रात्रियां ऋतु कहल्वती हैं,

उनमें पहली चार रातें निन्दित हैं; [अतः उनमें स्वीका

{ज स्पर्श नहीं करना चाहिये] शेष बारह रातोंमेंसे जो सम

दे] संख्यावाली अर्थात्‌ छठीं और आठवीं आदि रते हैं,

च व उनमें खी-समागम करनेसे पुत्रकी उत्पत्ति होती है तथा

विषम संख्यावाली अर्थात्‌ पाँचवीं, सातवीं आदि रात्रियाँ

कन्याकी उत्पत्ति करानेवाली हैं। जिस दिन चन्द्रमा अपने

स्यि दूषित हों, उस दिनको छोड़कर तथा मघा और

चः मूलनक्षत्रका भी परित्याग करके विशेषतः ल्लिङ्गं

नामवाले श्रवण आदि नक्षत्रोमे शुद्ध भावसे पत्रीके साथ

४ || समागम करें; इससे चारों पुरुषाधेकरि साधक शुद्ध एव

८9 # सदाचारी पुत्रका जन्म होता है ।

थोड़ी-सी भी कीमत लेकर कन्याको बेचनेवाला

पुरुष पापी माना गया है। ब्राह्मणके लिये व्यापार,

राजाकी सेवा, वेदाध्ययनका त्याग, निन्दित विवाह और

नित्य कर्मका ल्लेप--ये दोष कुक नीचे गिरानेवाले

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