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डर

* पुराणं गारुडं वक्ष्ये सारं विष्णुकथाश्रयम्‌ *

[ संक्षिप्त गरुडपुराणाङ्क

है। शरीर बन जानेषर दसवें पिण्डसे प्राणीको अत्यधिक

भूख लगती है ।

दस दिनके पिण्डे विधि, मत्र, स्वधा, आवाहन और

आज्ञीवदिका प्रयोग नहीं होता है, केवल नाम तथा

गोत्रोच्चारपर्वक पिण्डदान दिया जाता है। हे पक्षिन्‌!

मृतकका दाह - संस्कार हो जानेके पश्चात्‌ पुन: शरीर उत्पन्न

होता है। पहले दिन जो पिण्डदान दिया जाता है, उससे

मूर्धा, दूसरे दिनके पिण्डदाने ग्रीवा और दोनों स्कन्ध,

तीसरे दिनके पिण्डदानसे हृदय, चौथे दिनके पिण्डदानसे

पृष्ठ, पाँचवें दिनके पिण्डदानसे नाभि, छठे दिनके पिण्डदातसे

कटिप्रदेश, सातवें दिनके पिण्डदानसे गुह्याभाग, आठवें

दिनके पिण्डदानसे ऊरु, नौव दिनके पिण्डदानसे तालु-पैर

और दसवें दिनके पिण्डदानसे श्रुधाकी उत्पत्ति होती है ।

जीवात्मा शरीर प्राप्त करनेके पश्चात्‌ भूखसे पीडित हो

करके घरके दरवाजेषर रहता है। दसवें दिन जो

पिण्डदान होता है, उसको मृतकके प्रिय भोज्य-पदार्थसे

बना करके देता चाहिये, क्योंकि शरीर-निर्माण हो जानेपर

मृतकको अत्यधिक भूख लग जाती है, प्रिय भोज्य-पदार्थके

अतिरिक्त अन्य किसी अलादिक पदार्थोंसे बने हुए

पिण्डका दान देनेसे उसकी भूख दूर नहीं होती है।

एकादशाह और द्वादशाहके दिन प्रेत भोजन करता है।

मरे हुए स्त्रौ-पुरुष दोनोंके लिये प्रेत शब्दका उच्चारण

करना चाहिये। उन दिनों दीप, अनन, जल, वस्त्र जो कुछ

भी दिया जाता है, उसको प्रेत शब्दके द्वारा देना चाहिये,

क्योंकि यह मृतकके लिये आनन्ददायक होता है'।

त्रयोदशाहकों पिण्डज शरीर धारण करके भूख-

प्याससे पौड़ित वह प्रेत यमदूतोकि द्वारा महापथपर लाया

जाता है। जो प्रेत पापी होते हैं, उनका मार्ग शीत, ताप,

शंकुके आकारका चुभनेवाला, मांस खानेवाले जन्तु तथा

अग्निसे परिष्याप्त रहता है। जो सुकृती हैं उनका मार्ग सब

प्रकारसे सौम्य है, उतको उस मार्गमे कोई कष्ट नहीं होता

१-पार्षणादि श्राद्धमे निर्द'ष्ट पिण्डदानयिधि।

२-दोषमर्न॑ जलं वस्त्र यत्किंचिठ्स्तु दौयते। प्रेतशब्देन

है। असिपत्रवनसे व्याप्त उस मार्गमे इतने दुःख हैं कि क्षुधा-

प्याससे पीड़ित उस प्रेतकों नित्य यमदूत अत्यधिक संत्रास

देते हैं। प्रतिदिन वह प्रेत दो सौ सैंतालिस योजन चलता

है। यमदूतोंके पाशसे बँधा, हा-हा करके विलाप करता

हुआ बह प्रेत अपने घरकों छोड़कर दिन और रात चलकर

यमलोक पहुँचता है। उस महापयरभे पड़नेवाले प्रसिद्ध

पुरोकि शुभाशुभ भोग प्राप्त करते हुए वह यमलोकको जाता

है। इस मार्गमें क्रमश:--याम्यपुर, सौरिपुर, नगेन्रभवन,

गन्धर्वनगर, शैलागम, क्रौक्षपुर, क्रूरपुर, विचित्रभवन, बह्मापद,

दुःखद, नानाक्रन्दपुर, सुतप्तभवन, रौद्रनगर, पयोवर्षण,

शोताढ्य और बहुधर्म -भीतिभवन नामक प्रसिद्ध पुर हैं।

अयोदशाह अर्थात्‌ तेरहवींके दिन यमदूत प्रेतकों उस

मार्गपर उसी प्रकारसे पकड़कर ले जाते हैं, जिस प्रकार

मनुष्य बंदरकों पकड़कर ले जाता है। उस प्रकारसे बँधा

हुआ वह प्रेत चलते हुए नित्य “हा पुत्र, हा पुत्र'का करुण

विलाप करता है। वह कहता है कि मैंने किस प्रकारका

कर्म किया है जो ऐसा कष्ट मैं भोग रहा हूँ। वह यह भी

कहते हुए चलता है कि यह मनुष्य-योनि कैसे प्रात होती

है। यने इसको व्यर्थम गवा दिया है। प्राणी इस मनुष्य-

योनिको बहुत बड़े पुण्यसे प्राप्त करता है। उसको पाकर

मैंने याचकॉकों स्वार्जिते धन दानमे नहीं दिया। आज यह

भी पराधीन हो गया है। ऐसा कहकर वह गद्गद हो

उठता है*। जब यमदूत उसको अत्यधिक पीड़ित करते

हैं तो वह बार-बार अपने पूर्व-शरीरजन्य कर्मोंका स्मरण

करता हुआ इस प्रकार कहता है-

सुख-दुःखका दाता कोई दूसरा नहीं है। जो लोग

सुख-दुःखका दाता दूसरेकों समझते हैं, वे कुबुद्धि ही हैं।

जीवात्मा सदैव पहले किये गये कर्मका भोग करता है। हे

देहौ! तुमने जो कुछ किया है, उसमें निस्तार करो*। मैंने

ने दान दिया है, न अग्निमें आहुति डाली है, न हिमालय

पर्वतकी गुफामें जाकर तपस्या ही की है और न तो गङ्गाके

तहेय॑ मृतस्यथानन्ददापकम्‌॥ (१५।७५) ="

३- मनुष्यं लध्यते कस्मादिति ब्ूते प्रसर्पति । महता पुण्ययोगेन मानुष्यं जन्म लध्यते॥

जे कत्‌ प्राप्य प्रदतं हि याचकेभ्यः स्वकं धनन्‌ । पराधीनं रदभवदिति ब्रूते (रौति) सगद्द:॥ (१५।८६-८७)

भ-सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता परो ददातीति कुबुद्धिरेषा

पुण कृतं कर्म सदैव भुज्यते देहिन्‌ क्वचिन्निस्तर यह्‌ त्वया कृतम्‌ #॥ (१५१८९)

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