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अलग-अलग। (सबको एक साथ बुलाकर नहीं।)

मन्त्रीको चाहिये कि राजाके गुप्त विचारको दूसरे

मन्तरियोपर भी न प्रकट करे। मनुष्योंका सदा

करटी, किसी एकपर ही विश्वास जपता है,

इसलिये एक ही विद्वान्‌ मन्त्रीके साथ बैठकर

राजाको गुप्त मन्त्रका निश्चय करना चाहिये।

विनयका त्याग करनेसे राजाका नाश हो जाता है

और विनयकी रक्षासे उसे राज्यकी प्राप्ति होती

है। तीनों वेदोंके विद्वानोंसे त्रयीविद्या, सनातन

दण्डनीति, आन्वीक्षिकी (अध्यात्मविद्या) तथा

अर्थशास्त्रका ज्ञान प्राप्त करे। साथ ही वार्ता

(कृषि, गोरक्षा एवं वाणिज्य आदि)-के प्रारम्भ

करनेका ज्ञान लोकसे प्राप्त करे। अपनी इन्द्रियोंको

वशमें रखनेवाला राजा ही प्रजाको अधीन रखनेमें

समर्थ होता है। देवताओं और समस्त ब्राह्मणोंकी

पूजा करनी चाहिये तथा उन्हें दान भी देना

चाहिये। ब्राह्मणको दिया हुआ दान अक्षय निधि

है; उसे कोई भी नष्ट नहीं कर सकता। संग्राममें

पीठ न दिखाना, प्रजाका पालन करना और

ब्राह्मणोंकों दान देना-ये राजाके लिये परम

कल्याणको बातें हैं। दीनों, अनाथों, वृद्धों तथा

विधवा स्त्रियोके योगक्षेमका निर्वाह तथा उनके

लिये आजौविकाका प्रबन्ध करें। वर्ण और

आश्रम-धर्मकी रक्षा तथा तपस्वियोंका सत्कार

राजाका कर्तव्य है। राजा कहीं भी विश्वास न

करे, किंतु तपस्वियोंपर अवश्य विश्वास करे। उसे

यथार्थ युक्तियोंके द्वारा दूसरोंपर अपना विश्वास

जमा लेना चाहिये। राजा बगुलेकी भाँति अपने

स्वार्थका विचार करे और (अवसर पानेपर)

सिंहके समान पराक्रम दिखाबे। भेदियेकी तरह

झपटकर शत्रुको विदीर्ण कर डाले, खरगोशकी

भाँति छलाँगें भरते हुए अदृश्य हो जाय और

सूअरकी भाँति दृढ़तापूर्वक प्रहार करे। राजा

मोरकी भाँति विचित्र आकार धारण करे, घोड़ेके

समान दृढ़ भक्ति रखनेवाला हो ओर कोयलकी

तरह मीठे वचन बोले। कौएकी तरह सबसे

चौकन्ना रहे; रातमें ऐसे स्थानपर रहे, जो दूसरोको

मालूम न हो; जाँच या परख किये बिना भोजन

और शय्याको ग्रहण न करे। अपरिचित स्त्रीके

साथ समागम न करे; बेजान-पहचानकी नावपर

न चढे। अपने राष्ट्रकी प्रजाको चूसनेवाला राजा

राज्य ओर जीवन--दोनोसे हाथ धो बैठता है।

महाभाग ! जैसे पाला हुआ बछड़ा बलवान्‌ होनेपर

काम करनेके योग्य होता है, उसी प्रकार सुरक्षित

राष्ट्र राजाके काम आता है। यह सारा कर्म दैव

और पुरुषार्थके अधीन है । इनमें दैव तो अचिन्त्य

है, किंतु पुरुषार्थमें कार्य करको शक्ति है । राजाके

राज्य, पृथ्वी तथा लक्ष्मीकी उत्पत्तिका एकमात्र

कारण है -प्रजाका अनुराग। (अतः राजाको चाहिये

कि वह सदा प्रजाको संतुष्ट रखे ।) ॥ १७-३३ ॥

इस ग्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें “राजधर्मका कथन” नामक

दो सौ प्रचीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ २२५ #

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दो सौ छब्बीसवाँ अध्याय

पुरुषार्थकी प्रशंसा; साम आदि उपायोंका प्रयोग तथा

राजाकी विविध देवरूपताका प्रतिपादन

पुष्कर कहते हैं-- परशुरामजी ! दूसरे शरीरसे | श्रेष्ठ बतलाते हैं। दैव प्रतिकूल हो तो उसका

उपार्जित किये हुए अपने ही कर्मका नाम "दैव" | पुरुषार्थसे निवारण किया जा सकता है तथा

समझिये। इसलिये मेधावी पुरुष पुरुषार्थको ही | पहलेके सात्विक कर्मसे पुरुषार्थके बिना भी

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