दो सौ सत्ताईसवाँ अध्याय
अपराधोंके अनुसार दण्डके प्रयोग
पुष्कर कहते हैं-- राम! अब मैं दण्डनीतिका
प्रयोग बतलाऊँगा, जिससे राजाको उत्तम गति
प्राप्त होती है। तीन जौका एक 'कृष्णत' समझना
चाहिये, पाँच कृष्णलका एक "माष" होता है,
साठ कृष्णल (अथवा बारह माष) ' आधे कर्ष'के
बराबर बताये गये हैं। सोलह माषका एक
*सुवर्ण' माना गया है। चार सुवर्णका एक
“निष्क' और दस निष्कका एक 'धरण' होता है।
यह तांबे, चाँदी और सोनेका मान बताया गया
है॥ १--३॥
परशुरामजी! तबिका जो "कर्ष" होता है, उसे
विद्वानोंने 'कार्षिक' और 'कार्षाषण” नाम दिया
है। ढाई सौ पण (पैसे) ' प्रथम साहस' दण्ड
माना गया है, पाँच सौ पण “मध्यम साहस' और
एक हजार पण “उत्तम साहस' दण्ड बताया गया
है। चोरोंके द्वारा जिसके धनकी चोरी नहीं हुई है
तो भी जो चोरीका धन वापस देनेवाले राजाके
पास जाकर झूठ ही यह कहता है कि " मेरा इतना
धन चुराया गया है', उसके कथनकी असत्यता
सिद्ध होनेपर उससे उतना ही धन दण्डके रूपमें
वसूल करना चाहिये। जो मनुष्य चोरीमें गये हुए
धनके विपरीत जितना धन बतलाता है, अथवा
जो जितना झूठ बोलता है-उन दोनोंसे राजाको
दण्डके रूपमें दूना धन वसूल करना चाहिये;
क्योंकि वे दोनों ही धर्मको नहीं जानते। झूठी
गवाही देनेवाले क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-इन
तीनों वर्णॉंको कठोर दण्ड देना चाहिये; किंतु
ब्राह्मणको केवल राज्यसे बाहर कर देना उचित
है। उसके लिये दूसरे किसी दण्डका विधान नहीं
है। धर्मज्ञ! जिसने धरोहर हड़प ली हो, उसपर
धरोहरके रूपमें रखे हुए वस्त्र आदिकी कीमतके
बराबर दण्ड लगाना चाहिये; ऐसा करनेसे धर्मकी
हानि नहीं होती। जो धरोहरको नष्ट करा देता है,
अथवा जो धरोहर रखे बिना ही किसीसे कोई
वस्तु माँगता है--उन दोनोंकों चोरके समान दण्ड
देना चाहिये; या उनसे दूना जुर्माना वसूल करना
चाहिये। यदि कोई पुरुष अनजानमें दूसरेका धन
वेच देता है तो वह (भूल स्वीकार करनेपर)
निर्दोष माना गया है; परंतु जो जान-बूझकर अपना
बताते हुए दूसरेका सामान बेचता है, वह चोरके
समान दण्ड पानेका अधिकारी है। जो अग्रिम
मूल्य लेकर भी अपने हाथका काम बनाकर न
दे, वह भी दण्ड देनेके ही योग्य है। जो देनेकी
प्रतिज्ञा करके न दे, उसपर राजाको सुवर्ण
(सोलह माष)-का दण्ड लगाना चाहिये। जो
मजदूरी लेकर काम न करें, उसपर आठ कृष्णल
जुर्माना लगाना चाहिये। जो असमयमें भृत्यका
त्याग करता है, उसपर भी उतना ही दण्ड लगाना
चाहिये। कोई वस्तु खरीदने या बेचनेके बाद
जिसको कुछ पश्चात्ताप हो, बह धनका स्वामी
दस दिनके भीतर दाम लौटाकर माल ले सकता
है। (अथवा खरीददारको ही यदि माल पसंद न
आवे तो वह दस दिनके भीतर उसे लौटाकर
दाम ले सकता है।) दस दिनसे अधिक हो
जानेपर यह आदान-प्रदान नहीं हो सकता।
अनुचित आदान-प्रदान करनेवालेपर राजाको छः
सौका दण्ड लगाना चाहिये ॥ ४-- १४ \ ॥
जो वरके दोषोंको न बताकर किसी कन्याका
वरण करता है, उसको वचनद्वारा दी हुई कन्या
भी नहीं दी हुईके ही समान है। राजाकों चाहिये
कि उस व्यक्तिपर दो सौका दण्ड लगवे। जो
एकको कन्या देनेकी बात कहकर फिर दूसरेको