ॐ हां हां हां निवृत्तिकलापाशाय हूं
फट् स्वाहा।' इसके बाद "ॐ हां हां हों
निवृक्तिकलापाशाय हूं फट् स्वाहा ।'--इस मन्त्रसे
प्रदर्शनपूर्वक पूरक प्राणायामद्वारा
उक्त कलाका आकर्षण करे। फिर "ॐ हूं हां हां
हां हूं निवृत्तिकलापाशाय हूं फद्।'- इस मन््रसे
संहारमुद्रा एवं कुम्भक प्राणायामद्वारा उसे नाभिके
नीचेके स्थानसे लेकर ' ॐ हां निवृत्तिकलापाशाय
नमः।'--इस मन्त्रसे उद्धव-मुद्रा एवं रेचक
प्राणायामके द्वारा उसको कुण्डमे किसी आधार
या आसनपर स्थापित करे। तत्पश्चात् "ॐ हां
निवृत्तिकलापाशाय नमः।'-इस मन्त्रसे
अर्घ्यदानपूर्वक पूजन करके इसीके अन्ते ' स्वाहा '
लगाकर तर्पण और संनिधानके उद्देश्यसे पृथक्-
पृथक् तीन-तीन आहुतियाँ दे। इसके बाद "ॐ
हां ब्रह्मणे नम: ।'--इस मन्तरसे ब्रह्माका आवाहन
और पूजन करके उसीके अन्तमें स्वाहा ' जोड़कर
तीन आहुवियोंद्वारा ब्रह्माजीको तृप्त करे । तदनन्तर
उनसे इस प्रकार विज्ञप्तिपूर्षक प्रार्थना करे--
“ब्रह्मन्! मैं इस मुमुक्षुकों आपके अधिकारमें
दीक्षित कर रहा हूँ। आपको सदा इसके अनुकूल
रहना चाहिये ' ॥ ३२--३८॥
तदनन्तर रक्तवर्णां वागीश्चरीदेवीका मन-ही-
मन हदय-मन्त्रसे आवाहन करे। वे देवी इच्छा,
ज्ञान और क्रियारूपिणी हैं। छः प्रकारके अध्याओंकी
एकमात्र कारण हैं। फिर पूर्वोक्त प्रकारसे
वागीश्वरीदेवीका पूजन और तर्पण करे। साथ ही
समस्त योनियोंको विक्षुब्ध करनेवाले और हदये
विराजमान बागीश्वरदेवका भी पूजन और तर्पण
करना चाहिये। आदिमे अपने बीज और अन्तमें
"हं फट्" से युक्त जो अस्त्र-मन्त्र हैं, उसीसे
विधानवेत्ता गुरु शिष्यके हृदयका ताड़न करें और
भावनाद्वारा उसके भीतर प्रविष्ट हो। तत्पश्चात्
हृदयके भीतर अग्निकणके समान प्रकाशमान जो
शिष्यका जीवचैतन्य निवृत्तिकलामें स्थित होकर
पाशोंसे आबद्ध है, उसे ज्येष्ठाद्वारा विभक्त करे ।
उसके विभाजनका मन्त्र इस प्रकार है--' ॐ हां
हूं हः हूं फट्।' ' ॐ हां स्वाहा।' इस मन्त्रसे
पूरक प्राणायाम और अङ्कुश-मुद्राद्रारा उस
जीवचैतन्यको हृदयमें आकृष्ट करके, आत्म-
मन्त्रसे पकड़कर, उसे अपने आत्मामें योजित
करे। वह मन्त्र इस प्रकार है--' ॐ हां हां हामात्मने
नमः \'॥ ३९--४५॥
फिर माता-पिताके संयोगका चिन्तन करके
रेचक प्राणायामद्वारा ब्रह्मादि कारणोंका क्रमशः
त्याग करते हुए उक्त जीवचैतन्यको शिवरूप
अधिष्ठानमें ले जाय और गर्भाधानके लिये उसे
लेकर एक ही समय सब योनियॉमें तथा वामा
उद्धव-मुद्राके द्वारा वागीश्वरी योनिमें उसे डाल
दे। इसके बाद ' ॐ हां हां हामात्मने नमः ।' इसी
मन््रसे पूजन और पाँच बार तर्पण भी करे। इस
जीवचैतन्यका सभी योनियॉमें ` हदय-~मन्त्रसे
देह-साधन करे। यहाँ पुंसवन-संस्कार नहीं
होता; क्योकि स्त्री आदिके शरीरकी भी उत्पत्ति
सम्भव है। इसी तरह सीमन्तोनयन भी नहीं हो
सकता; क्योंकि दैववश अन्ध आदिके शरीरसे
भी उत्पत्तिकी सम्भावना है ॥ ४६--५०॥
शिरोमन्त्र (स्वाहा) -से एक ही समय समस्त
देहधारि्योके जन्मकी भावना करे। इसी तरह
शिव-मन्त्रसे भी भावना करे। कवच-मन्त्रसे
भोगकी और अस्त्र-मन््रसे विषय और आत्मार्मे
मोहरूप लय नामक अभेदकी भी भावना करे।
तदनन्तर शिव-मन्त्रसे स्नोतोंकी शुद्धि और हदय-
मन्त्रसे तत्व्शोधन करके गभाधान आदि संस्कारोंके