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४६. जयभद्र, ४७. दीर्घबाहु, ४८. जलान्तक, ४९.

वडवास्य, ५०. भीम--ये दस रद्र वरुणदिशामें स्थित

बताये गये हैं। ५१. शीघ्र, ५२. लघु, ५३. वायुवेग,

५४. सूक्ष्म, ५५. तीष््ण, ५६. क्षमान्तक, ५७ पश्चान्तक,

५८. पञ्चशिख, ५९. कपी, ६२०. मेषवाहन--

ये दस स्र वायव्यकोणमें स्थित है । ६१. जयमुकुटधारी,

६२. नानास्नधर ६३. निधीश, ६४. रूपवान्‌ ६५. धन्य,

६६. सौम्यदेह, ६७. प्रसादकृत्‌, ६८. प्रकाम,

६९. लक्ष्मीवान्‌, ७०. कामरूप- ये दस रुद्र उत्तर

दिशामें स्थित है । ७९१. विद्याधर, ७२. ज्ञानधर,

७३. सर्व, ७४. वेदपारा, ७५. मातृवृत्त, ७६. पिड़्ाक्ष,

७७. भूतपाल, ७८. यलिप्रिय, ७९. सर्वविद्याविधाता

सुख-दुःखकर-ये दस रुद्र ईशानकोणमें

स्थित हैं। ८१. अनन्त, ८२. पालक, ८३. धीर,

८४. पातालाधिपति, ८५५. वृष, ८६. वृषधर्‌ ८७. वीर्‌

८८. ग्रसन, ८९. सर्वतोमुख, ९०. लोहित--इन दस

रुद्रोंकी स्थिति नीचेकी दिशा पाताललोकमें समझनी

चाहिये। ९१. शम्भु, ९२. विभु, ९३. गणाध्यक्ष,

९४. त्यक्ष, ९५, त्रिदेशवन्दित, ९६. संकाह; ९.७. विवाह,

९८. नभ, ९९. लिप्सु, १००. विचक्षण-ये दस रुद्र

ऊर्ध्व दिशामें विराजमान है । १०१. हृहुक,

१०२. कालाग्निरुद्र, १०३. हारक, १०४. कूष्माण्ड,

१०५. सत्य, १०६. ब्रह्मा, १०७. विष्णु तथा

१०८. रुद्र-ये आठ रुद्र ब्रह्माण्ड-कटाहके

भीतर स्थित हैं। यह स्मरण रखना चाहिये कि

इन्हीके नामपर एक सौ आठ भुवनोके भी नाम

हैं॥ १२--२५॥

(१) सद्धावेश्वर, (२) महातेजः, (३)

योगाधिपते, (४) मुझ मुञ्च, (५) प्रमथ प्रमथ,

(६) शर्व शर्व, (७) भव भव, (८) भवोद्धव,

(९) सर्वभूतसुखप्रद, (१०) सर्वसांनिध्यकर्‌, (११)

ब्रह्मविष्णुरुद्रपर, . (१२) अनर्चितान्चित, (१३)

असंस्तुतासंस्तुत, (१४) पूर्वस्थित पूर्वस्थित, (१५)

साक्षिन्‌ साक्षिन्‌, (१६) तुरु तुरु, (१७) पतंग

पतंग, (१८) पिङ्ग पिङ्ग, (१९) ज्ञान ज्ञान, (२०)

शब्द शब्द, (२१) सूक्ष्म सुक्ष्म, (२२) शिव,

(२३) सर्व, (२४) सर्वद, (२५) ॐ नमो नमः,

(२६) ॐ नमः, (२७) शिवाय, (२८) नमो

नमः-ये अट्टाईस पद हैं। स्कन्द! व्यापक

आकाश मन है। ' ॐ नपो वौषट्‌ '-ये अभीष्ट

मन्त्रवर्णं है । अकार और लकार (अं लं) बीज

हैं। इडा और पिङ्गला नापवाली दो नाड़ियाँ हैं।

प्राण ओर अपान--दौ वायु हैं और प्राण तथा

उपस्थ-ये दो इन्द्रियाँ हैं। गन्धकों विषय ' कहा

गया है तथा इसमें गन्ध आदि पाँच गुण हैं। यह

पृथ्वीतत्त्वसे सम्बन्धित है। इसका रंग पीला है।

इसकी मण्डलाकृति (भूपुर) चौकोर है और

चारों ओरसे वज्रसे अङ्कित है। इस पार्थिव

मण्डलका विस्तार सौ कोटि योजन माना गया

है। चौदह योनियोंकों भी इसीके अन्तर्गत जानना

चाहिये॥ २६--३१॥

प्रथम छ: योनियाँ मृग आदिकी हैं और आठ

दूसरी देवयोनियाँ हैं। उनका विवरण इस प्रकार

है--मृग पहली योनि है, दूसरी पक्षी, तीसरी

पशु, चौथी सर्प आदि, पाँचवों स्थावर और छठी

योनि मनुष्यकौ है। आठ देवयोनिर्योमें प्रथम

पिशाचोंकी योनि है, दूसरी ` राक्षसौकी, तीसरी

यक्षोंकी, चौथी गन्धर्वोकी, पाँचवीं इन्द्रकी, छठी

सोमक, सातवीं प्रजापतिकी और आठवीं योनि

ब्रह्माकी बतायी गयी है। पार्थिव-तत्त्वपर इन

आरोका अधिकार माना गया है। लय होता है

प्रकृतिमें, भोग होता है बुद्धिमें और ब्रह्मा कारण

हैं। तदनन्तर जाग्रत्‌ अवस्था-पर्यन्त समस्त भुवन

आदिसे गर्भित हुई निवृत्तिकलाका ध्यान करके

उसका अपने मन्त्रम विनियोग करे । वह मन्त्र इस

प्रकार है-

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