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# पुराण परम पुण्यै अधिष्य॑ सर्वंसोस्यदम्‌ „

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाडु

सप्तमी-त्रतमें दन्तधावन-विधि-वर्णन

भगवान्‌ सूर्यने कहा--विनतानन्दन अरुण !

अयनकाल, विषुवकाल, संक्रान्ति तथा प्रहणकारूमें सदा

भगवान्‌ सूर्यकी पूजा करनी चाहिये। सप्तमीमें तो विशेषरूपसे

उनकी पूजा करनी चाहिये । सप्तमियाँ स्रत प्रकारकी कही गयी

हैं--अर्कसम्पुटिका-सप्तमी, मरीचि-सप्तमी, निम्ब-सप्तमी,

फलसप्तमी, अनोदना-सप्तमी, विजय-सप्तमी तथा सातवीं

काामिका-सप्तमी । माघ मास या मार्गशीर्ष मासमे शङ्क पक्षकी

सप्तमौको उपवास ग्रहण करना चाहिये। आर्त व्यक्तिके लिये

मास और पक्षका नियम नहीं है। रात बीतनेमें जब आधा प्रहर

दोष रहे, तब दन्तधावन करना चाहिये। महुएकी दतुबनसे

दन्तधायन करनेपर पुत्र-प्राप्ति, सैंगौयासे दुःख़नाशा, बदरी

(बेर) और कृती (भटकटैया) से लप्र हौ रोगमूक्ति,

बिल्वसे ऐश्वर्य-प्राप्ति, खैरसे धन-संचय, कदम्बसे शत्रुनाश,

अतिपुक्तकसे अर्धप्राप्ति, आटरूपक (अड्सा) से गुरुता प्राप्त

होती है। पीपलके दातूनसे यफ़ और जातिमें प्रधानता तथा

करवीरसे अचल परिज्ञान प्राप्त होता है, इसमें संदेह नहीं।

शिरीषकी दातूनसे विपुल लक्ष्मी और प्रियंगुके दातुनसे परम

सौभाग्यको प्राप्ति होती है।

अभीप्सित अर्थकी सिद्धिके लिये सुखपूर्वक बैठकर

वाणीका संयम करके निम्न लिस्थित मन्त्रसे दातूनके वृक्षकी

प्रार्थना कर दातून करे--

खरे त्वामभिजानामि काम च यनस्पते।

सिद्धिं प्रयच्छ से नित्यं दन्तका नमोऽस्तु ते ॥

(जाहमषर्व १९३ । ६३)

"वनस्पते ! आप श्रेष्ठ कामनाओँंको प्रदान करनेवाले हैं,

ऐसा मैं भ्परभांति जानता हूँ। हे दन्तकाष्ठ ! मुझे सिद्धि प्राप्त

करायें। आपको नमस्कार है।'

इस मन्त्रका तीन बार जप करके दन्तघावन करना

चाहिये ।

दूसरे दिन पवित्र होकर भगवान्‌ सूर्यको प्रणाम कर यथेष्ट

जप करे । तदनन्तर अब्र हवन करे । अपराह्क-काल्मये मिट्टी,

गोबर ओर जलसे स्नानकर विधिपूर्वक नियमके साथ शु

वस्र धारण कर पवित्र हो, देवाधिदेव दिकाकरकी भक्तिपूर्वक

विधिवत्‌ पूजा और गायत्रीका जप करे । (अध्याय १९३)

क>न

स्वभ्र-फल-वर्णन तथा उदक-सप्तमी-व्रत

भगवान्‌ सूर्यने कहा--हे खगश्रेष्ठ ! व्रतीको चाहिये

कि जप, होम आदि सभी क्रियाओंको विधिपूर्वक सम्पन्न कर

देवाधिदेव भगवान्‌ सूर्यका ध्यान करता हुआ भूमिपर शयन

करे । स्वप्रमें यदि मनुष्य भगवान्‌ सूर्य, इद्धध्वज तथा

चन्द्रमाको देखे तो उसे सभी समृद्धियाँ सुलभ होती हैं। शृङ्गार,

चैंवर, दर्पण, स्वर्णलकार, रुधिरलाव तथा केशपातकों देखे

तो ऐश्वर्यलाभ होता है । स्वप्रमें वृक्षाधरोषण शीघ्र ऐश्वर्यदायक

है। महिषी, सिंही तथा गौका अपने हाथसे दोहन और इनका

अन्धन करनेपर राज्यका परभ होता है। नाधिका स्पर्श करनेपर

दुर्युद्धि होती है। भेड़ एवं सिंहको तथा जलमें उत्पन्न जन्तुको

मास्कर स्वयं खानेसे, अपने अङ्ग. अस्थि, अग्रि-भक्षण,

मदिरा-पान, सुवर्ण, चाँदी और पद्मपत्रके पात्रमें खीर खानेपर

उसे ऐश्वर्यकी प्राप्ति होती है। चूत या युद्धमें विजय देखना

सुखप्रद होता है। अपने झरीरके प्रश्ज्वलन तथा शिरोबन्धन

देखनेसे ऐश्वर्य प्राप्त होता है। पातर, शुक्र वल, अश, पशु,

पक्षीका तत्रभ और विष्ठाका अनुलेपन प्रशंसनीय माना गया

है। अश्च या रथपर यात्राका स्वप्र देखना शीघ्र ही संततिके

आगमनका सूचक है। अनेक सिर और भुजाएँ देखनेपर घरमे

रूक्ष्मी आती है। वेदाध्ययन देखना श्रेष्ठ है। देव, द्विज, श्रेष्ठ

वीर, गुरु, वृद्ध तपस्वी स्वपरमे मनुष्ये जो कुछ कहें उसे सत्य

ही मानना चाहिये'। इनका दर्शाने एवं आश्षीर्वाद श्रेष्ठ

फलदायक है। पर्वत, अश्व, सिंह, बैल और हाथीपर विशिष्ट

पराक्रमके साथ स्वप्रमें जो आग्रेहण करता है, उसे महान्‌

ऐश्वर्य एवं सुखकी प्राप्ति होती है । ग्रह, तारा, सूर्यका जो स्वे

परिवर्तन करता है और पर्वतका उन्पूलन करता है, उसे पृथ्वीपति

होनेका संकेत मिलता है। शरीरसे आँतोंक्य निकलना, समुद्र

१-देवद्विजश्रेष्ठकोरगुर्यूद्धतपरिवत:

॥ यद्वदन्ति नरे स्वर सत्यमेवेति तद्ठिदु: ।

(आप्य १९४ | ११-१२)

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