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शरीविष्णुपुराण

(अ० ८

तस्मात्सदाचारवता पुरुषेण जनार्दनः ।

आराध्यते_ खवर्णोक्तधर्मानु्ठानकारिणा

ब्राह्मण: क्षत्रियो वैदयः सुद्रश्च पृथिवीपते ।

स्वधर्मतत्यरो विष्णुमाराधयति नान्यथा

नान्यथा ॥ १२

चैशुन्यमनृते च न भाषते |

अन्योद्धेगकरं वापि तोष्यते तेन कैदावः ॥ १३

परदारपरद्रव्यपरहिसासु यो रतिम्‌ ।

न करोति पुमान्भूप तोष्यते तैन केशवः ॥ ९४

न ताडयति नो हन्ति प्राणिनोऽन्याश्च देहिनः ।

यो मनुष्यो मनुष्यन्र तोष्यते तेन केशवः शा ५ कर न नजन ॥ १५

देवद्विजगुरूणां च

तोष्यते तेन गोकिन्दः पुरुषेण नश्वर ॥ १६

सि यपा च ~ स यस्तथा ।

सुखम्‌ ॥ ९७

~~~ रागादिदोषेण न दुष्टं नृप मानसम्‌ ।

॥ १८

दे कक कनयाजय बाबा ये धर्माइशास्रोक्ता नृपसत्तम ।

तेषु तिष्ठन्नरो नान्यथा ॥ १९

सगर उकाच

तदहं श्रोतुमिच्छामि वर्णधर्मानशेषतः ।

तथैवाश्रमधर्माश्च द्विजवयं ब्रवीहि तान्‌ ॥ २०

आव्णि रल्ले च पारक्ये समबुद्धिर्भवेद द्विजः ।

ऋतावभधिगम: पल्य शास्यते चास्य पार्थिव ॥ २५

अतः सटाचारयुक्त पुरुष अपने वर्णके लिये विदित

॥ ११ | धर्मका आचरण करते हुए श्रीजनार्दनहीकी उपासना करता

है॥ ६९१ ॥ हे पृथिवीपते ! तऋ्यण, क्षत्रिय, वैश्य और

अपने-अपने धर्मका पालन करते हुए ही विष्णुकी

आराधना करते हैं अन्य प्रकारसे नहीं॥ १२ ॥

जो पुरुष दूसरोंकों निन्‍दा, चुगली अथवा मिथ्याभाषण

नहीं करता तथा ऐसा वचन भी नहीं बोलता जिससे

दूसरोंको खेद हो, उससे निश्चय ही भगवान्‌ केशव प्रसन्न

रहते हैं॥ १३ ॥ हे राजन्‌ ! जो पुरुष दूसरोंकी स्त्री, धन

और हिंसामें रुचि नहीं करता उससे सर्वदा ही भगवान्‌

केशाय सन्तुष्ट रहते हैं ॥ १४ ॥ हे नरेन्द्र जो मनुष्य !

किसी प्राणी अध्वा [ वृक्षादि ] अन्य देहघारियोंको

पीड़ित अथवा न नहीं करता उससे श्रीकेदाख सन्तुष्ट रहते

हैं ॥ १५ ॥ जो पुरुष देवता, ब्राह्मण और गुरुजनोंकी सेवामें

सदा तत्पर रहता है, हे नरेश्वर | उससे गोविन्द सदा प्रसन्न

रहते हैं ॥ १६ ॥ जो व्यक्ति स्वयं अपने और अपने पुत्रोकि

समान ही समस्त प्राणियॉँका भी हित-चित्तक होता है वह

सुगमतासे ही श्रीहरिको प्रसन्न कर लेता है॥ ६७ ॥ हे

नृप ! जिसका चित्त रागादि दोसे दूषित नहीं है उस

विशुद्ध-चित्त पुरुषसे भगवान्‌ विष्णु सदा सन्तुष्ट रहते

है ॥ १८ ॥ हे नृपश्रेष्ठ | शास्नोंमें जो-जो वर्णाश्रम - नमं कहे

हैं उन-उनका ही आचरण करके पुरुष विष्णुकी आराधना

कर सकता है और किसी प्रकार नहीं ॥ ६९ ॥

सगर खोले-- हे द्विजश्रेष्ठ ! अब मैं सम्पूर्ण वर्णधर्म

और आश्रमघर्मोंको सुनना चाहता हूँ, कृपा करके वर्णन

कीजिये॥ २० ॥

ओर्य ओले--जिनका मैं वर्णन करता हूँ, उन

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और झूद्रेकि धर्मोक्रा तुम

एकाधचित्त होकर क्रमदाः श्रवण करो ॥ २१ ॥ ब्राह्मणका

कर्तव्य है कि दान दे, अज्ञोंद्रारा देवताओंका यजन

करे, स्वाध्यायशील हो, नित्य खान-तर्पण करे और

अग्न्याधान आदि कर्म करता रहे॥२२॥ ब्राह्मणको

उचित है कि वत्तिके लिये दूसरोंसे यज्ञ करावे, ओको

पढ़ाये और न्यायोपार्जित शुद्ध धनपेंसे न्‍्यायानुकूल

द्रव्य संग्रह करे ॥ २३ ॥ ब्राह्मणक्मे कभी किसोका अहित

नहीं करना चाहिये और सर्वदा समस्त प्राणियोंके हितमें

तत्पर रहना चाहिये। सम्पूर्ण प्राणियॉमें मैत्रो रखना हो

ब्राद्मणका परम धन है ॥ २४ ॥ पत्थरमें और पराये रलं

ब्राह्मणको समान-बुद्धि रखनी चाहिये । ले यजन्‌ } पत्नीके