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उस मणिको हाथमे ले, विरहसे व्याकुल होकर

रोने लगे और बोले--'इस मणिको देखकर ऐसा

जान पड़ता है, मानो मैंने सीताकों ही देख लिया।

अब मुझे सीताके पास ले चलो; मैं उसके बिना

जीवित नहीं रह सकता।' उस समय सुग्रीव

आदिने श्रीरामचन्द्रजीकों समझा-बुझाकर शान्त

किया। तदनन्तर श्रीरघुनाथजी समुद्रके तटपर

गये। वहाँ उनसे विभीषण आकर मिले। विभीषणके

भाई दुरात्मा रावणने उनका तिरस्कार किया था।

विभीषणने इतना ही कहा था कि “भैया! आप

सीताको श्रीरापचनद्रजीकौ सेवामें समर्पित कर

दीजिये ।' इसी अपराधके कारण उसने इन्हें ठुकरा

दिया था। अब वे असहाय थे। श्रीरामचनद्रजीने

विभीषणको अपना मित्र बनाया और लङ्काके

राजपदपर अभिषिक्त कर दिया। इसके बाद

श्रीरामने समुद्रसे लङ्का जानेके लिये रास्ता माँगा।

जब उसने मार्ग नहीं दिया तो उन्होंने बाणोंसे उसे

बींध डाला। अब समुद्र भयभीत होकर

श्रीरामचनद्रजीके पास आकर बोला--' भगवन्‌!

नलके द्वारा मेरे ऊपर पुल बँधाकर आप लङ्का

जाइये। पूर्वकालमें आपहीने मुझे गहरा बनाया

था।' यह सुनकर श्रीरामचन्द्रजीने नलके द्वारा वृक्ष

और शिलाखण्डोंसे एक पुल बँधवाया और

उसीसे वे वानरोंसहित समुद्रके पार गये। वहाँ

सुवेल पर्वतपर पड़ाव डालकर वर्हीसि उन्होंने

लङ्कापुरीका निरीक्षण किया॥ २६--३३॥

इस प्रकार आदि आरनेय महापुराणमें (रामायण-कथाके अन्तर्गत सुन्दरकाण्डकी कथाका कणति '

नाक ववां अध्याय पूरा हुआ॥ ९0

दसवां अध्याय

युद्धकाण्डकी संक्षिप्त कथा

नारदजी कहते हैं-- तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजीके

आदेशसे अङ्गद रावणके पास गये और बोले--

"रावण! तुम जनककुमारी सीताकों ले जाकर

शीघ्र ही श्रीरामचन्द्रजीको सौंप दो। अन्यथा मारे

जाओगे।' यह सुनकर रावण उन्हें मारनेको तैयार

हो गया। अङ्गद राक्षसोंको मार-पीटकर लौट

आये और श्रीरामचन्द्रजीसे बोले--' भगवन्‌! रावण

केवल युद्ध करना चाहता है।' अड्भदकी बात

सुनकर श्रीरामने वानरोंकौ सेना साथ ले युद्धके

लिये लड्जामें प्रवेश किया। हनुमान्‌, मैन्द, द्विविद,

जाम्बवान्‌, नल, नील, तार, अङ्गद, धूम्र, सुषेण,

केसरी, गज, पनस, विनत, रम्भ, शरभ, महाबली

कम्पन, गवाक्ष, दधिमुख, गवय ओर गन्धमादन -

ये सब तो वहाँ आये ही, अन्य भी बहुत-से

वानर आ पहुँचे। इन असंख्य वानरॉसहित

[कपिराज] सुग्रीव भी युद्धके लिये उपस्थित थे।

फिर तो राक्षसो ओर वानरोंमें घमासान युद्ध छिड्‌

गया। राक्षस वानरॉकों बाण, शक्ति और गदा

आदिके द्वारा मारने लगे और वानर नख, दाँत

एवं शिला आदिके द्वारा राक्षस्रोंका संहार करने

लगे। राक्षसोंकी हाथी, घोड़े, रथ और पैदलोंसे

युक्त चतुरङ्गिणी सेना नष्ट- भ्रष्ट हो गयी। हनुमानने

पर्वतशिखरसे अपने वैरी धूप्राक्षका वध कर

डाला। नीलने भी युद्धके लिये सामने आये हुए

अकम्पन और प्रहस्तको मौतके घाट उतार

दिया॥ १-८॥

श्रीयम और लक्ष्मण यद्यपि इन्द्रजितके नागास्त्रसे

वंध गये थे, तथापि गरुड़की दृष्टि पड़ते ही उससे

मुक्त हो गये। तत्पश्चात्‌ उन दोनों भाइयोंने बाणोंसे

राक्षसी सेनाका संहार आरम्भ किया। श्रीरामने

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