तमप्यसाधकं प्रत्वा ध्यायतोःधन्यस्ततो5भवत् ।
ऊर्ध्बत्नोतास्तृतीयस्तु सात्विकोर्ध्वमवर्त्तत ॥ १२
ते सुखप्रीतिबहुला बहिरन्तस्त्वनावृताः ।
प्रकाशा बहिरन्तश्च ऊर्ध्वस्रोतोद्धवाः स्मृता:॥ १३
तुष्टात्मनस्तृतीयस्तु देवसर्गस्तु स स्पृतः ।
तस्मिन्सगेंभवलद्मीतिर्निष्पन्ने ब्रह्मणस्तदा ॥ १४
ततोऽन्यं स तदा दध्यौ साधकं सर्गमुत्तमम् ।
असाधकांस्तु ताज्जात्वा मुख्यसर्गादिसम्भवान् ॥ १५
तथाभिध्यायतस्तस्य सत्याभिध्यायिनस्ततः ।
प्रादुर्बभूव चाव्यक्तादर्वाक्छ्नोतास्तु साधकः ॥ १६ |
वस्माद्वग्व्यवर्तन्त ततोऽर्वाक्स्रोतसस्तु ते ।
ते च ्रकाराबहूलास्तमोद्रि्ता रजोऽधिकाः ॥ १७ |
तस्मात्ते दुःखबहुला भूयोभूयश्च कारिणः ।
प्रकारा बहिरन्तश्च मनुष्याः साधकास्तु ते ॥ ९८
इत्येते कथिताः सर्गाः षड मुनिसत्तम ।
प्रथपो पतः सर्गो विज्ञेयो ब्रह्मणस्तु सः ॥ १९
तन्मात्राणां द्वितीयश्च भूतसर्गो हि स स्मृतः ।
वैकारिकस्तृतीयस्तु सर्ग ऐन्द्रियक: स्मृतः ॥ २०
इयेष प्राकृतः सर्गः सम्भूतो बुद्धिपूर्वकः ।
मुख्यसर्गश्चतुर्थस्तु मुख्या वै स्थावराः स्पृताः ॥ २९
उस सर्गक्रो भौ पुरुषार्था जसाघक समझ पुनः
चिन्तन करनेपर एफ और सर्ग हुआ। वह ऊर्ध्व
स्नोतगामक तीसरा सात्विक सर्ग ऊपरके लोकॉमें रहने
लगा ॥ १२॥ यै ऊर्म्य-स्त्रोत सृष्टिमें उत्पन्न हुए प्राणी
निषय-सुखके प्रेण, बाह्म ओर आन्तरिक दृष्टिसम्पन्न,
तथा वाहय और आन्तरिक ज्ञानयुक्त थे ॥ १३ ॥ यह तीसरा
देवसर्ग कहल्मता है । इस सर्गके भादुर्भुत होनेसे सन्तुषट-
चित्त ब्रह्माजीको अति प्रसप्नता हुई ॥ १४ ॥
फिर, इन मुख्य सर्गं आदि तीनों प्रकारकी सृष्टियॉमें
उत्पन्न हुए, प्राणिर्योको पुरुषार्थका असाधक जान उन््हेंने
| एक और उत्तम साधक सर्गके स्त्य चिन्तन किया
। १५.॥ ठन सत्यसंकल्प ब्रह्माजीके इस प्रकार चिन्तन
| च्छरनेपर अव्यक्त (प्रकृति) से पुरुषार्थका साधक
| अर्थक््लोत नामक सर्ग प्रकट हुआ ॥ १६ ॥ इस सर्गके
प्राणी नीचे (पृथिवोपर) रहते हैं इसस्प्यि वे 'अर्वाक्-
स्रोत कहत्त्रते हैं । डनमें सत्त्व, रज और तम तीनोंहीको
अधिकता होती है॥१७॥ इसलिये वे दुःखबहुल,
अत्यन्त क्रियाङीर एवं वाष्म-आभ्यन्तर ज्ञानसे युक्त और
साधक हैं। इस सर्गके प्राणी सनुष्य हैं ॥ १८ ॥ |
है पुनिश्रष्ठ ! इस प्रकार अबतक तुमसे छः सर्ग
के । उनमें सहत्तत्वकों त्रद्माऊझा पहला सर्ग जानना
चाहिये ॥ १९ ॥ दूसरा सर्ग तत्पात्राओंका है, जिसे
भूतसर् भी कहते हैं और तीसरा वैकारिक सर्ग है जो
पेद्धियिकत (इन्द्रिय-सम्बन्धी) कहल्थता है ॥ २० ॥ इस
प्रकार बुद्धिपूर्नक उटान हुड यह प्रक्रत सर्गं हुआ।
कुल नौ तुष्टियों हैं तथा ऊहा, शव्द, अध्ययन, [आष्यात्पिक, आधिर्भतिक और अधिदेष्कि] तीन दुःखबिधात, सुहत्माप्ति
और दान-ये आठ सिद्धिं हैं। ये [इद्धियाहक्ति, तुष्टि. सिद्धिरूप] तीगों ध मुक्तिसे उूर्व विप्नरूप हैं।
अत्त वधिरत्वादिसे केकर पाशलपनतक मनसलित ग्यारह इृश्द्रियाफों खिपरोत अवस्थाएं ग्यारह इन्दरियवध हैं।
आठ प्रकरकन प्रफृतिगेंसे किसौपे चितका ख्य हो जानेसे अपनेकों सुक्त मान केना प्रकृति' नामवस्तर तुष्ट है। संन्याससे
ही अपनेको कृतार्थ मान लेना "उपादान तानक चुष्टि है। समय भतेषर् सव्ये हो सिद्धि साभ हो जायगी, ध्यनादि क्रेशकी क्या
आवश्यकता है ऐसा विचार करना "काल" नामकी तुष्टि है और भाग्योटयसे सिद्धि हो जायगी--ऐसा विचार भाः्य' नामकी
तुष्टि है। ये चारौका आत्मासे सम्बन्ध दै; भतः ये आध्यात्मिक तुष्टियाँ हैं। पदार्थोंके उपार्जन, रक्षण और व्यय आदियें दोष देखकर
उनसे उपगम हो जाना बाह्य नुं है। शब्दादि चाच विषय पाँच हैं, इसलिये बाह्य तुष्टियाँ भौ पाँच ही है। इस प्रकार कुछ
नौ तुष्ट्या हैं।
उपदेशकी अपेक्षा न करके स्वयै ही परमार्थक निश्चय कर लेना 'ऊहा सिद्धि है। प्रसंगवदा कहों कुछ सुनकर उसोसे
ज्ञानसिद्धि प्न चैना “शब्द सिद्धि है । गुरुसे पकर हो यस्तु प्राप्त हो गयौ --पेस्ा मान रना ' अध्ययन सिद्धि है। आध्टास्पिकादि
विविध दुःखोका नाश हो जाना तीन प्रकारको 'दुःखबिघात' सिद्धि टै । अभीष्ट पदार्थवरी प्रा दो जाओ 'सुदृत्पाप्ति' सिद्धि है। तथा
त्रिद्वान् या तपस्वियोंका संग प्राप्त हो जाना दान' नापिका सिद्धि है। इस प्रकार वै आठ सिद्धियाँ हैं।